महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 103-118

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अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 103-118 का हिन्दी अनुवाद

‘इसी प्रकार तुम्‍हे भी जल्‍दी ही मेरे हित का कार्य करना चाहिये। महाप्राज्ञ! तुम ऐसे प्रयत्‍न करो, जिससे हम दोनों की रक्षा हो सके। ‘अथवा यदि पहले के वैर का स्‍मरण करके तुम यहां व्‍यर्थ काटना चा‍हते हो तो पापी! देख लेना, इसका क्‍या फल होगा? निश्‍चय ही तुम्‍हारी आयु क्षीण हो चली है। ‘यदि मैंने अज्ञानवश पहले कभी तुम्‍हारा कोई अपराधकिया हो तो तुम्‍हें उसको मन में नहीं लाना चाहिये, मैं क्षमा मांगता हूं। तुम मुझपर प्रसन्‍न हो जाओ। चूहा बड़ा विद्वान् तथा नीतिशास्‍त्र को जानने वाली बुद्धि से सम्‍पन्‍न था। उसने उस समय इस प्रकार कहने वाले बिलाव से यह उत्‍तम बात कही-‘भैया बिलाव! तुमने अपनी स्‍वार्थसिद्धिपर ही ध्‍यान रखकर जो कुछ कहा है, वह सब मैंने सुन लिया तथा मैंने भी अपने प्रयाजन को सामने रखते हुए जो कुछ कहा है, उसे तुम भी अच्‍छी तरह समझते हो। ‘जो किसी डरे हुए प्राणी दारा मित्र बनाया गया हो तथा जो स्‍वयं भी भयभीत होकर ही उसका मित्र बना हो–इन दोनों प्रकार के मित्रों की ही रक्षा होनी ही चाहिये और जैसे बाजीगर सर्प के मुख से हाथ बचाकर ही उसे खेलाता है, उसी प्रकार अपनी रक्षा करते हुए ही उन्‍हें एक दूसरे का कार्य करना चाहिये। ‘जो व्‍यक्ति बलवान से संधि करके अपनी रक्षा का ध्‍यान नहीं रखता, उसका वह मेल–जोल खाये हुए अपथ्‍य अन्‍न के समान हितकर नहीं हेाता। ‘न तो कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी को शत्रु। स्‍वार्थ को ही लेकरमित्र और शत्रु एक दूसरे से बंधे हुए हैं। जैसे पालतू हाथियों द्वारा जंगली हाथी बांध लिये जाते है, उसी प्रकार अर्थेांद्वारा ही अर्थ बंधते हैं। ‘काम पूरा हो जाने पर कोई भी उसके करने वाले को नहीं देखता-उसके हितपर नहीं ध्‍यान; अत: सभी कार्यों का अधूरे ही रखना चाहिये। ‘जब चाण्‍डाल आ जायगा, उस समय तुम उसी के भय से पीड़ित हो भागने लग जाओगे; फिर मुझे पकड़ न सकोगे। ‘मैंने बहुत से तंतु काट डाले हैं, केवल एक ही डोरी बाकी रख छोडी़ है। उसे भी मैं शीघ्र ही काट डालूंगा; अत: लोमश! तुम शांन्‍त रहो, घबराओ न’। इस प्रकार संकट में पडे़ हुए उन दोनों के वार्तालाप करते–करते ही वह रात बीत गयी। अब लोमश के मन में बड़ा भारी भय समा गया। तदनन्‍तर प्रात:काल परिघ नामक चाण्‍डाल हाथ में हथियार लेकर आता दिखायी दिया। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। शरीर का रंग काला और पीला था। उसका नितम्‍ब भाग बहुत स्‍थूल था। कितने ही अंग विकृत हो गये थे। वह स्‍वभाव का रूखा जान पड़ता था। कुतों से घिरा हुआ वह मलिनवेषधारी चाण्‍डाल बड़ा भयंकर दिखायी दे रहा था, उसका मुंह विशाल था और कान दीवार में गड़ी हुई खूंटियों के समान जान पड़ते थे। यमदूत के समान चाण्‍डाल को आते देख बिलाव का चित भय से व्‍याकुल हो गया। उसने डरते–डरते यही कहा- ‘भैया चूहा! अब क्‍या करोगे?’ एक ओर वे दोनों भयभीत थे। दूसरी ओर भयानक प्राणियों से घिरा हुआ चाण्‍डाल आ रहा था। उन सबको देखकर नेवला और उल्‍लू क्षणभर में ही निराश हो गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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