महाभारत वन पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-16

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १३:२४, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्‍तदश (17) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तदश अध्याय: श्लोक 1- 16 का हिन्दी अनुवाद

प्रद्युम्न और शाल्व का घोर युद्ध

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं--भरतश्रेष्ठ ! यादवों से ऐसा कहकर रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न एक सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हुए, जिसमें बख्तर पहनाये हुए घोड़े जुते थे। उन्होंने अपनी मकर चिन्हित ध्वजा को ऊँचा किया, जो मुँह बाये हुए काल के समान प्रतीत होती थी। उनके रथ के घोड़े ऐसे चलते थे, मानो आकाश में उड़े जा रहे हों। ऐसे अश्वों से जुते हुए रथ के द्वारा महाबली प्रद्युम्न ने शत्रुओं पर आक्रमण किया। वे अपने श्रेष्ठ धनुष को बारंबार खींचकर उसकी टंकार फैलाते हुए आगे बढ़े। उन्होंने पीठ पर तरकस और कमर में तलवार बाँध ली थी। उनमें शौर्य भरा था और उन्होने गोह में चमड़े के बने हुए दस्ताने पहन रखे थे। वे अपने धनुष को एक हाथ से दूसरे हाथ में ले लिया करते थे। उस समय वह धनुष बिजली के समान चमक रहा था। उन्होंने उस धनुष के द्वारा सौभ विमान में रहने वाले समस्त दैत्यों को मूर्च्छित कर दिया। वे बारंबार धनुष को खींचते, उस पर बाण रखते और उसके द्वारा शत्रु सैनिकों को युद्ध में मार डालते थे। उनकी उक्त क्रियाओं में किसी को भी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखायी देता था। उनके मुख का रंग तनिक भी नहीं बदलता था। उनके अंग भी विचलित नहीं होते थे। सब ओर गर्जना करते हुए प्रद्युम्न का उत्तम एवं अद्भुत बल-पराक्रम का सूचक सिंहनाद सब लोगों को सुनायी देता था। शाल्व की सेना के ठीक सामने प्रद्युम्न के श्रेष्ठ रथ पर उनकी उत्तम ध्वजा फहराती हुई शोभा पा रही थी। उस ध्वजा के सुवर्णमय दण्ड के ऊपर सब तिमि नामक जल- जन्तुओं का प्रथमन करने वाले मुँह बाये एक मगरमच्छ का चिन्ह था। वह शत्रु सैनिकों को अत्यन्त भयभीत कर रहा था। नरेश्वर ! तदनन्तर शत्रुहन्ता प्रद्युम्न तुरंत आगे बढ़कर राजा शाल्व के साथ युद्ध करने की इच्छा से उसी की ओर दौड़े। कुरुकुल तिलक ! उस महासंग्राम में वीर प्रद्युम्न के द्वारा किया हुआ वह आक्रमण क्रुद्ध राजा शाल्व न सह सका। शत्रु की राजधानी पर विजय पाने वाले शाल्व ने रोष एवं बल के मद से उन्मत हो इच्छानुसार चलने वाले विमान से उतरकर प्रद्युम्न से युद्ध आरम्भ किया। शाल्व तथा वृष्णिवंशी वीर प्रद्युम्न में बलि और इन्द्र के समान घोर युद्ध होने लगा। उस समय लोग एकत्र होकर उन दोनों का युद्ध देखने लगे। वीर ! शाल्व के पास सुवर्णभूषित मायामय रथ था। वह रथ ध्वजा, पताका, अनुकर्ष ( हरसा )[१] और तरकस से युक्‍त था। प्रभो कुरुनन्दन ! श्रीमान महाबली शाल्व ने उस श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ बाणों की वर्षा आरम्भ की। तब प्रद्युम्न भी युद्ध भूमि में अपनी भुजाओं के वेग से शाल्व को मोहित करते हुए-से उसके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणों की बौछार करने लगे। सौभ विमान का स्वामी राजा शाल्व युद्ध में प्रद्युम्न के बाणों से घायल होने पर यह सहन नहीं कर सका--अमर्ष में भर गया और मेरे पुत्र पर प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी बाण छोड़ने लगा। महाबली प्रद्युम्न ने उन बाणों को आते ही काट गिराया। तत्पश्चात शाल्व ने मेरे पुत्र पर और भी बहुत-से प्रज्वलित बाण छोड़े।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रथ के नीचे पहिये के ऊपर लगा रहने वाला काष्ठ।

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।