महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 129 श्लोक 1-18

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एक सौ उन्तीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 29 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्ट्र का गांधारी को बुलाना और उसका दुर्योधन को समझाना

वैशंपायनजी कहते हैं– जनमजेय ! श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता विदुर से शीघ्रतापूर्वक कहा-। तात ! जाओ, परम बुद्धिमानी और दूरदर्शिनी गांधारी देवी को यहाँ बुला लाओ ! मैं उसी के साथ इस दुर्बुद्धि को समझा बुझाकर राह पर लाने कि चेष्टा करूंगा। ‘यदि वह भी उस दुष्टचित्त दुरात्मा को शांत कर सके तो हम लोग अपने सुहृद श्रीक़ृष्ण कि आज्ञा का पालन कर सकते हैं। ‘दुर्योधन लोभ के अधीन हो रहा है । उसकी बुद्धि दूषित हो गई है और उसके सहायक दुष्ट स्वभाव के ही हैं । संभव है, गांधारी शांतिस्थापन के लिए कुछ कहकर उसे सन्मार्ग का दर्शन करा सके। ‘यदि ऐसा हुआ तो दुर्योधन के द्वारा उपस्थित किया हुआ हमारा महान् एवं भयंकर संकट दीर्घकाल के लिए शांत हो जाएगा और चिरस्थायी योगक्षेम की प्राप्ति सुलभ होगी। राजा की यह बात सुनकर विदुर धृतराष्ट्र के आदेश से दूरदर्शिनी गांधारीदेवी को वहाँ बुला ले आए।

उस समय धृतराष्ट्र ने कहा – गांधारी ! तुम्हारा वह दुरात्मा पुत्र गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है । वह ऐश्वर्य के लोभ में पड़कर राज्य और प्राण दोनों गंवा देगा । मर्यादा का उल्लंघन करनेवाला वह मूढ़ दुरात्मा अशिष्ट पुरुष की भाँति हितैषी सुहृदों की आज्ञा को ठुकराकर अपने पापी साथियों के साथ सभा से बाहर निकाल गया है

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमजेय ! पति का यह वचन सुनकर यशस्विनी राजपुत्री गांधारी महान् कल्याण का अनुसंधान करती हुई इस प्रकार बोली।

गांधारी ने कहा– महाराज ! राज्य की कामना से आतुर हुए अपने पुत्र को शीघ्र बुलवाये । धर्म और अर्थ का लोप करने वाला कोई भी अशिष्ट पुरुष राज्य नहीं पा सकता, तथापि सर्वथा उद्दंडता का परिचय देने वाले उस दुष्ट ने राज्य को प्राप्त कर लिया है। महाराज ! आपको अपना बेटा बहुत प्रिय है, अत: वर्तमान परिस्थिति के लिए आप ही अत्यंत निंदनीय हैं, क्योंकि आप उसके पापपूर्ण विचारों को जानते हुए भी सदा उसी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं। राजन् ! इस दुर्योधन को काम और क्रोध ने अपने वश में कर लिया है, यह लोभ में फंस गया है; अत: आज आपका इसे बलपूर्वक पीछे लौटाना असंभव है। दुष्ट सहायकों से युक्त, मूढ़, अज्ञानी, लोभी और दुरात्मा पुत्र को अपना राज्य सौंप देने का फल महाराज धृतराष्ट्र स्वयं भोग रहे हैं। कोई भी राजा स्वजनों में फैलती हुई फूट की उपेक्षा कैसे कर सकता है ? राजन् ! स्वजनों में फूट डालकर उनसे विलग होनेवाले आपकी सभी शत्रु हँसी उड़ायेंगे । महाराज ! जिस आपत्ति को साम अथवा भेदनीति से पार किया जा सकता है, उसके लिए आत्मीयजनों पर दण्ड का प्रयोग कौन करेगा ?

वैशम्पायनजी कहते हैं– जनमजेय ! पिता धृतराष्ट्र के आदेश और माता गांधारी की आज्ञा से विदुर असहिष्णु दुर्योधन को पुन: सभा में बुला ले आए। दुर्योधन की आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं । वह फुफकारते हुए सर्प की भांति लंबी साँसे खींचता हुआ माता की बात सुनने की इच्छा से सभाभवन में पुन: प्रविष्ट हुआ। अपने कुमार्गगामी पुत्र को पुन: सभा के भीतर आया देख गांधारी उसकी निंदा करती हुई शांतिस्थापन के लिए इस प्रकार बोली-। ‘बेटा दुर्योधन ! मेरी यह बात सुनो । जो सगे-संबंधियों सहित तुम्हारे लिए हितकारक और भविष्य में सुख की प्राप्ति करानेवाली है। ‘भरतश्रेष्ठ दुर्योधन ! तुम्हारे पिता, पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य और विदुर तुमसे जो कुछ कहते हैं, अपने इन सुहृदों की वह बात मान लो। ‘यदि तुम शांत हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा भीष्म की, पिताजी की, मेरी तथा द्रोण आदि अन्य हितैषी सुहृदों की भी पूजा सम्पन्न हो जाएगी। ‘भरतश्रेष्ठ ! महामते ! कोई भी अपनी इच्छा मात्र से राज्य की प्राप्ति, रक्षा अथवा उपभोग नहीं कर सकता। ‘जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं किया है, वह दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग नहीं कर सकता । जिसने अपने मन को जीत लिया है, वह मेधावी पुरुष ही राज्य की रक्षा कर सकता है। ‘काम और क्रोध मनुष्य को धन से दूर खींच ले जाते हैं । उन दोनों शत्रुओं को जीत लेने पर राजा इस पृथ्वी पर विजय पाता है। ‘जनेश्वर ! यह महान् प्रभुत्व ही राज्य नामक अभीष्ट स्थान है । जिनकी अंतरात्मा दूषित है, वे इसकी रक्षा नहीं कर सकते। ‘महत्पद को प्राप्त करने की इच्छावाला पुरुष अपनी इंद्रियों को अर्थ और धर्म में नियंत्रित करे । इंद्रियों को जीत लेने पर बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे ईंधन डालने से आगे प्रज्वलित हो उठती है। ‘जैसे उद्दंड घोड़े काबू में न होनेपर मूर्ख सारथी को मार्ग में ही मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन इंद्रियों को काबू में न रखा जाय तो ये मनुष्य का नाश करने के लिए भी पर्याप्त हैं। ‘जो पहले अपने मनको न जीतकर मंत्रियों को जीतने की इच्छा करता है अथवा मंत्रियों को जीते बिना शत्रुओं को जीतना चाहता है, वह विवश होकर राज्य और जीवन दोनों से वंचित हो जाता है।अत: पहले अपने मन को ही शत्रु के स्थान पर रखकर इसे जीते। तत्पश्चात मंत्रियों और शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा करें । ऐसा करने से उसकी विजय पाने की अभिलाषा कभी व्यर्थ नहीं होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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