महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 51-61

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सैंतालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: सैंतालीसवॉं अध्याय: श्लोक 31-61 का हिन्दी अनुवाद

ब्राहामण पहले अन्‍य तीनों वर्णोकी स्त्रियांको ब्‍याह लानेके पश्‍चात् भी यदि ब्राहामणकन्‍यासे विवाह करे तो वही अन्‍य स्त्रियोंकी अपेक्षा ज्‍येष्‍ठ, अधिक आदर-सत्‍कारके योग्‍य तथा विशेष गौरवकी अधिकारिणी होगी। युधिष्ठिर ! पतिको स्‍नान कराना, उनके लिये श्रृंगार-सामग्री प्रस्‍तुत करना, दॉंतकी सफाईके लिये दातौन और मंजन देना, पतिके नेत्रोंमें ऑंजन या सुरमा लगाना, प्रतिदिन हवन और पूजनके समय हव्‍य और काव्‍यकी सामग्री जुटाना तथा घरमे और भी धार्मिक कृत्‍य हो उसके सम्‍पादनमे योग देना-ये सब कार्य ब्राहामण के लिये ब्राहामणी को करना चाहिये। उसके रहते हुए दूसरे किसी वर्णवाली स्‍त्रीको यह सब करनेका अधिकार नहीं है। पतिको अन्‍न, पान,माला, वस्‍त्र, और आभूषण-ये सब वस्‍तुएं ब्राहामणी ही समर्पित करे; क्‍योंकि वही उसके लिये सब स्त्रियोंसे अधिक गौरवकी अधिकारीणी है। महाराज कुरुन्‍न्‍दन ! मनुने भी जिस धर्मशास्‍त्रका प्रतिपादन किया है, उसमें भी यही सनातन धर्म देखा गया है। युधिष्ठिर ! यदि ब्राहामण कामके वशीभूत होकर इस शास्‍त्रीय पध्‍दतिके विपरीत बर्ताव करता है, वह ब्राहामण चाण्‍डाल समझा जाता है जैसा कि पहले कहा गया है। राजन् ! ब्राहामण के समान ही जो क्षत्रियका पुत्र होगा, उसमें भी उभवर्णसम्‍बन्‍धी अन्‍तर तो रहेगा ही। क्षत्रियकन्‍या संसारमें अपनी जातिद्वारा ब्राहामण-कन्‍या के बराबर नहीं हो सकती। नृपश्रेष्‍ठ ! इसी प्रकार ब्राहामणीका पुत्र क्षत्रियाके पुत्रसे प्रथम एवं ज्‍येष्‍ठ होगा। युधिष्ठिर ! इसलिये पिताके धनमेंसे ब्राहामणीके पुत्रको अधिक-अधिक भाग देना चाहिये। जैसे क्षत्रिया कभी ब्राहाणीके समान नहीं हो सकती वैसे ही वैश्‍या भी कभी क्षत्रियाके तुल्‍य नहीं हो सकती। राजा युधिष्ठिर ! लक्ष्‍मी, राज्‍य और कोष-यह सब शास्‍त्रमें क्षत्रियोंके लिये ही विहीत देखा जाता है।राजन् ! क्षत्रिय अपने धर्मके अनुसार समुन्‍द्रपर्यन्‍त पृथ्‍वी तथा बहुत बड़ी सम्‍पति प्राप्‍त कर लेता है।नरेश्‍वर ! राजा (क्षत्रिय) दण्‍ड धारण करनेवाला होता है।क्षत्रियके सिवा और किसीसे रक्षाका कार्य नहीं हो सकता। राजन् ! महाभाग ! ब्राहामण देवताओंके भी देवता है; अत: उनका विधिपूर्वक पूजन-आदर-सत्‍कार करते हुए ही उनके साथ बर्ताव करे। ॠषियोंद्वारा प्रतिपादित अविनाशी सनातन धर्मको लुप्‍त होता जानकर क्षत्रिय अपने धर्मके अनुसार उसकी रक्षा करता है। डाकुओंद्वारा लुटे जाते हुए सभी वर्णोंके धन और स्त्रियोंका राजा ही रक्षक होता है।इन सब दृष्टियोंसे क्षत्रियाका पुत्र वैश्‍या के पुत्र से श्रेष्‍ठ होता है-इसमें कोई संशय नहीं है।युधिष्ठिर ! इसलिये शेष पैतृक धनमेंसे उसको भी विशेष भाग लेना ही चाहिये। युधिष्ठिरने पूछा –पितामह! आपने ब्राहामणके धनका विभाजन विधिपूर्वक बता दिया। अब यह बताइये कि अन्‍य वर्णोके धनके बॅटवारेका कैसा नियम होना चाहिये? भीष्‍मजीने कहा-कुरुनन्‍दन ! क्षत्रियके लिये भी दो वर्णोकी भार्याऍं शास्‍त्रविहीत हैं। तीसरी शुद्रा भी उसकी भार्या हो सकती है। परंतु शास्‍त्रसे उसका समर्थन नहीं होता। राजा युधिष्ठिर! क्षत्रियोंके लिये भी बॅटवारेका यही क्रम हैं। क्षत्रियके धनको आठ भागोंमें विभक्‍त करना चाहिये। क्षत्रियका पुत्र उस पैतृक धनमेंसे चार भाग स्‍वंय ग्रहण कर ले तथा पिताकी जो युध्‍दसामग्री है, उसको भी वही ले ले। शेष धनमेसे तीन भाग वैश्‍याका पुत्र ले ले और अवशिष्‍ट आठवॉ भाग शुद्राका पुत्र प्राप्‍त करे। वह भी पिताके देनेपर ही उसे लेना चाहिये। बिना दिया हुआ धन ले जानेका उसे अधिकार नही है। कुरुनन्‍दन ! वैश्‍यकी एक ही वैश्‍यकन्‍या धर्मानुसार भार्या हो सकती है। दूसरी शुद्रा भी होती है, परंतु शास्‍त्रसे उसका समर्थन नहीं होता है। भरतश्रेष्‍ठ ! कुन्‍तीकुमार ! वैश्‍यके वैश्‍या और शुद्रा दोनोंके गर्भसे पुत्र हों तो उनके लिये भी धनके बँटवारेका वैसा ही नियम है। भरतभूषण नरेश ! वैश्‍यके धनको पॉच भागोंमें विभक्‍त करना चाहिये। फिर वैश्‍या और शूद्राके पुत्रोंमें उस धनका विभाजन कैसे करना चाहिये, यह बताता हूँ। भरतनन्‍दन ! उस पैतृक धनमेंसे चार भाग तो वैश्‍याके पुत्रको ले लेने चाहिये और पॉंचवॉं अंश शुद्राके पुत्रका भाग बताया गया है। वह भी पिताके देनेपर उस धनको ले सकता है। बिना दिया हुआ धन लेनेका उसे कोई अधिकार नहीं है। तीनों वर्णोसे उत्‍पन्‍न हुआ शुद्र सदा धन न देनेके योग्‍य ही होता है। शुद्रकी एक ही अपनी जातिकी ही स्‍त्री भार्या होती हैं। दूसरी किसी प्रकार नहीं।उसके सभी पुत्र, वे सौ भाई क्‍यों न हों, पैतृक धनमेंसे समान भागके अधिकारी होते है।समस्‍त वर्णोके सभी पुत्रोंका, जोसमान वर्णकी स्‍त्री से उत्‍पन्‍न हुए हैं, सामान्‍यत: पैतृक धनमें समान भाग माना गया है। कुन्‍तीन्‍दन ! ज्‍येष्‍ठ पुत्रका भाग भी ज्‍येष्‍ठ होता है। उसे प्रधानत: एक अंश अधिक मिलता है। पूर्वकालमें स्‍वयम्‍भू ब्रहाजीने पैतृक धनके बँटवारेकी यह विधि बतायी थी। नरेश्‍वर ! समान वर्णकी स्त्रियॉमें जो पुत्र उत्‍पन्‍न हुए हैं, उनमें यह दूसरी विशेषता ध्‍यान देने योग्‍य है।विवाह की विशिष्‍टताके कारण उन पुत्रोंमें भी विशिष्‍टता आ जाती है। अर्थात् पहले विवाहकी स्‍त्रीसे उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र श्रेष्‍ठ और दूसरे विवाहकी स्‍त्रीसे पैदा हुआ पुत्र कनिष्‍ठ होता है।तुल्‍य वर्णवाली स्त्रियोंसे उत्‍पन्‍न हुए उन पुत्रोंमें भी जो ज्‍येष्‍ठ है, वह एक भाग ज्‍येष्‍ठांश ले सकता है।मध्‍यम पुत्रको मध्‍यम और कनिष्‍ठ पुत्रको कनिष्‍ठ भाग लेना चाहिये। इस प्रकार सभी जातियोंमें समान वर्णकी स्‍त्रीसे उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र ही श्रेष्‍ठ होता है। मरीचि-पुत्र महर्षि काश्‍यपने भी यही बात बतायी है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके अन्‍तगर्त पैतृक धनका विभागनामक सैंतालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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