महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 8 श्लोक 19-33

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अष्टम अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 27- 54 का हिन्दी अनुवाद

तत्पश्चात शत्रुशूदन मद्रराज शल्य ने कुशल-प्रश्न के अन्रन्तर बडी प्रसन्नता के साथ युधिष्ठिर को हृदय से लगाया । इसी प्रकार उन्होंने हर्ष में भरे हुए दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन को तथा अपनी बहिन के दोनोंजुडवे पुत्रो नकुल-सहदेव को भी गलेलगाया। तदन्तर द्रोपदी सुभद्रा तथा अभिमन्यु ने महाबाहु शल्य के पास आकर, उन्‍हें प्रणाम किया । उस समय उदारचेता धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने दोनों हाथ जोडकर शल्य से कहा ॥युधिष्ठिर बोले-राजन् आपका स्वागत है इस आसन पर विराजिये।

वैशम्पायनजी कहते है-जनमेजय ! तब राजा शल्य सुवर्ण श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हुए । उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने सबको सुख देने वाले शल्य से कुशल-समाचार पूछा उस समस्त धर्मात्मा पाण्डव से धिर कर आशन पर बैठे हुए राजा शल्य कुन्ती कुमार युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले नृपतिश्रेष्ठ कुरूनन्दन ! तुम कुशल से तो हो न १ विजयी वीरो में श्रेष्ठ नरेश ! यह बडे सौभाग्य की बात है कि तुम बनवास के कष्ट से छुटकारा पा गये। ‘राजन ! तुमने अपने भाइयों तथा इस द्रुपद कुमारी कृष्णा के साथ निर्जन बन में निवास करके अत्यन्त दुष्कर कार्य किया है ॥३॰॥‘भारत भयकंर अज्ञातवास करके ते तुमलोगों ने और भी दुष्कर कार्य सम्पन्न किया है । जो अपने राज्य से वंचित हो गया हो, उसे तो कष्ट ही उठाना पड़ता है, सुख कहाँ से मिल सकता है[१]। शत्रुओं के संताप देने वाले नरेश ! दुर्योधन दिये हुए इस महान दुःख के अन्त में अब तुम शत्रुओं को मारकर सुख के भागी होओगे। महाराज ! नरेश्वर ! लोकतन्त्र सम्यक् ज्ञान है । तात ! इसीलिये तुम में लोभ जनित कोई भी बर्ताव नहीं है। भारत ! प्राचीन राजर्षियों के मार्ग का अनुसरण करो । तात युधिष्ठिर ! तुम सदा दाम, तपस्या और सत्य में ही सलग्न रहो राजा युधिष्ठिर ! क्षमा इन्द्रियसंयम, सत्य, अहिंसा तथा अöुत लोक-ये सब तुम में प्रतिष्ठत है। महाराज ! तुम कोमल, उदार, ब्राहाण भक्त, दानी, तथा धर्मपरायण हो । संसार जिनका साक्षी है, ऐसे बहुत से धर्म तम्हें ज्ञात है। तात ! परंतप! तुम्हे इस सम्पूर्ण जगत् का तत्व ज्ञात है । भरत श्रैष्ठ नरेश ! तुम्हे इस महन् संकट से पार हो गये, यह बडे सौभाग्य की बात है। राजेन्द्र ! तुम धर्मात्मा एवं धर्म की निधि हो राजन् ! तुमने भाइयों सहित अपनी दुष्कर प्रतिज्ञा पूरी कर ली है और इस अवस्था में तुम्हे देख रहा हूँ यह मेरा अहो भाग्य है।

वैशम्पायनजी कहते है-तदन्तर राजा शल्य ने दुर्योधन के मिलने, सेवा सुश्रषा करने और उसे अपने वरदान देने की सारी बाते कह सुनायी। युधिष्ठिर बोले-वीर महाराज ! आपने प्रसन्नचित्‍तहोकर जो दुर्योधन को उसकी सहायता का वचन दे दिया, वह अच्छा ही किया। परंतु पृथ्वीपते ! आपका कल्याण हो । मै आपके द्वारा अपना भी एक काम कराना चहाता हूं । साधू शिरोमणि ! वह न करने योग्य होने पर भी मेरी ओर देखते हुए आपको अवश्य करना चाहिये । वीरवर ! सुनिये;मै वह कार्य आपको बता रहा हूँ महाराज ! आप इस भूतल पर संग्राम में सारथी का काम करने के लिए वसदेवनन्दन भगवा् श्रीकृष्ण समान माने गये है। नृपशिरोमगे ! जब कर्ण और अर्जुन के दैरयुद्ध का अवसर प्राप्त होगा, उस समस भी आपको ही कर्ण के सारथि का काम करना पडे़ग;इसमे तनिक संशय नहीं है। राजन् ! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते है, तो उस युद्ध में आप को अर्जुन की रक्षा करनी होगी कि आप कर्ण का उत्साह मंग करते रहे । वही कर्ण से हमे विजय दिलाने वाला होगा मामा जी ! मेरे लिये न करने योग्य भी कार्य करे। शल्य बोले! पाण्डुनन्दन ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम मेरी बात सुनो ! युद्ध में महामना सूतपुत्र कर्ण के तज और उत्‍साहको नष्ट करने के लिये तुम जो मुझ से अनुरोध करते हो, वह ठीक नहीं है । यह निश्चय है कि मै उस युद्ध में उसका सारथि होऊँगा । स्वयं कर्ण भी सदा मुझेसारथि कर्म में भगवान श्रीकृष्ण के समान समझता है। कुरूक्षेष्ठ ! जब कर्ण रणभूमि में अर्जुन के साथ युद्ध की इच्छा करेगा, उस समय मै अवश्य ही प्रतिकूल अहितकर वचन बोलूंगा, जिससे उसका अभिमान और तेज नष्ट हो जायेगा और युद्ध में सुखपूर्वक मारा जा सकेगा । पाण्डुनन्दन ! मै तुमसे यह सत्य कहता हूँ। तात ! तुम मुझसे जो कुछ कह रहे हो, यह अवश्य पूर्ण करूँगा । वह प्रिय । इसके सिवा और भी जो कुछ मुझसे हो सकेगा, तुम्हारा वह प्रिय कार्य अवश्य करूँगा महातेजस्वी वीरवर युधिष्ठिर ! तुमने द्यूतसभा में द्रौपदी के साथ जो दुःख उठाया है, सूतपूत्र कर्ण ने तुम्हें जो कठोर बातें सुनायी है तथा पूर्वकाल में दमयन्ती ने जैसे अशुभ (दुःख) भोगा था, उसी प्रकार द्रोपदी ने जटासुर तथा कीचक से जो महान क्ळेश प्राप्त किया है, यह सभी दुःख भविष्य में तुम्हारे लिये सुख के रूप में परिवर्तित हो जायेगा इसके लिये तुम्हे खेद नहीं करना चाहिये;चिधाता का विधान अति प्रबल होता है। युधिष्ठिर ! महात्मा पुरूष भी समय-समय पर दुःख पाते है । पृथ्वीपते ! देवताओं ने भी बहुत दुःख उठाये है। भरतवंशी नरेश ! सुना जाता है कि पत्नी सहित महामना देवराज इन्द्र ने महान दुःख भोगा है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. १ टाइपिंग में रिफरेंस नहीं मिला

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