"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 63 श्लोक 32-43" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 32-43 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 32-43 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
आप जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कारण हैं। आप सब में सम, परम शान्त, सबके सुह्रद्, आत्मा और इष्टदेव हैं। आप एक,अद्वितीय और जगत् के आधार तथा अधिष्ठान हैं। हे प्रभो! हम सब संसार से मुक्त होने के लिये आपका भजन करते हैं ।
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जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि बाणासुर ने तो बाणों की झड़ी लगा दी है, तब वे छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से उसकी भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई किसी वृक्ष की छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो। जब भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने देखा की बाणासुर की भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के पास आये और स्तुति करने लगे।
 
देव! यह बाणासुर मेरा परम प्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रह्लाद पर आपका कृपा प्रसाद है, वैसा ही कृपा प्रसाद आप इस पर भी करें ।
 
  
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—भगवन्! आपकी बात मानकर—जैसा आप चाहते हैं, मैं इसे निर्भय किये देता हूँ। आपने पहले इसके सम्बन्ध में जैसा निश्चय किया था—मैंने इसकी भुजाएँ काटकर उसी का अनुमोदन किया है । मैं जानता हूँ कि बाणासुर दैत्यराज बलि का पुत्र है। इसलिये मैं भी इसका वध नहीं कर सकता; क्योंकि मैंने प्रह्लाद को वर दे दिया कि मैं तुम्हारे वंश में पैदा होने वाले किसी भी दैत्य का वध नहीं करूँगा । इसका घमंड चूर करने के लिये ही मैंने इसकी भुजाएँ काट दी हैं। इसकी बहुत बड़ी सेना पृथ्वी के लिये भार हो रही थी, इसीलिये मैंने उसका संहार कर दिया है । अब इसकी चार भुजाएँ बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदों में मुख्य होगा। अब इसको किसी से किसी प्रकार का भय नहीं है ।
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भगवान् शंकर ने कहा—प्रभो! आप वेदमन्त्रों में तात्पर्यरूप से छिपे हुए परमज्योतिः-स्वरुप परब्रम्ह हैं। शुद्धह्रदय महात्मागण आपके आकाश के समान सर्वव्यापक और निर्विकार (निर्लेप) स्वरुप का साक्षात्कार करते हैं। आकाश आपकी नाभि है, अग्नि मुख हैं और जल वीर्य। स्वर्ग सिर, दिशाएँ कान और पृथ्वी चरण हैं। चन्द्रमा मन, सूर्य नेत्र और मैं शिव आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका पेट है और इन्द्र भुजा। धान्यादि ओषधियाँ रोम हैं, मेघ केश हैं और ब्रम्हा बुद्धि। प्रजापति लिंग हैं और धर्म ह्रदय। इस प्रकार समस्त लोक और लोकान्तरों के साथ जिसके शरीर की तुलना की जाती है, वे परमपुरुष आप ही हैं। अखण्ड ज्योतिःस्वरुप परमात्मन्! आपका यह अवतार धर्म की रक्षा और संसार के अभ्युदय—अभिवृद्धि के लिये हुआ है। हम सब भी आपके प्रभाव से ही प्रभावान्वित होकर सातों भुवनों का पालन करते हैं। आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित हैं—एक और अद्वितीय आदिपुरुष हैं। मायाकृत जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति—इन तीन अवस्थाओं से में अनुगत और उनसे अतीत तुरीयतत्व भी आप ही हैं। आप किसी दूसरी वस्तु के द्वारा प्रकाशित नहीं होते, स्वयं प्रकाश हैं। आप सबके कारण हैं, परन्तु आपका न तोकोई कारण है और न तो आपमें कारणपना ही है। <br />
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भगवन्! ऐसा होने पर भी आप तीनों गुणों की विभिन्न विषमताओं को प्रकाशित करने के लिये अपनी माया से देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि शरीरों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होते हैं। प्रभो! जैसे सूर्य अपनी छाया बादलों से ही ढक जाता है और उन बादलों तथा विभिन्न रूपों को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आप तो स्वयं प्रकाश हैं, परन्तु गुणों के द्वारा मानो ढक-से जाते हैं और समस्त गुणों तथा गुणाभिमानी जीवों को प्रकाशित करते हैं। वास्तव में आप अनन्त हैं।
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भगवन्! आपकी माया से मोहित होकर लोग स्त्री-पुत्र, देह-गेह आदि में आसक्त हो जाते हैं और फिर दुःख के अपार सागर में डूबने-उतराने लगते हैं। संसार के मानवों को यह मनुष्य-शरीर आपने अत्यन्त कृपा करके दिया है। जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इन्द्रियों को वश में करता उअर आपके चरणकमलों का आश्रय नहीं लेता—उनका सेवन नहीं करता, उसका जीवन अत्यन्त शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है। प्रभो! आप समस्त प्राणियों के आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं। जो मृत्यु का ग्रास मनुष्य आपको छोड़ देता है और अनात्म, दुःखरूप एवं तुच्छ विषयों में सुखबृद्धि करके उनके पीछे भटकता है, वह इतना मूर्ख कि अमृत को छोड़कर विष पी रहा है। मैं, ब्रम्हा सारे देवता और विशुद्ध ह्रदय वाले ऋषि-मुनि सब प्रकार से और सर्वात्मभाव से आपके शरणागत हैं; क्योंकि आप ही हम लोगों के आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं।
  
श्रीकृष्ण से इस प्रकार अभयदान प्राप्त करके प्राप्त करके बाणासुर ने उनके पास आकर धरती में माथा टेका, प्रणाम किया और अनिरुद्धजी को अपनी पुत्री उषा के साथ रथ पर बैठाकर भगवान् के पास ले आया । इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने महादेवीजी की सम्मति से वस्त्रालंकार विभूषित उषा और अनिरुद्धजी को एक अक्षौहिणी सेना के साथ आगे करके द्वारका के लिये प्रस्थान किया । इधर द्वारका में भगवान् श्रीकृष्ण आदि के शुभागमन का समाचार सुनकर झंडियों और तोरणों से नगर का कोना-कोना सजा दिया गया। बड़ी-बड़ी सड़कों और चौराहों को चन्दन-मिश्रित जल से सींच दिया गया। नगर नागरिकों, बन्धु-बान्धवों और ब्राम्हणों ने आगे आकर खूब धूमधाम से भगवान् का स्वागत किया। उस समय शंख, नगारों और ढोलों की तुमुल ध्वनि हो रही थी। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी राजधानी में प्रवेश किया ।
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{{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 63 श्लोक 18-31|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 63 श्लोक 44-43}}
 
 
परीक्षित्! जो पुरुष श्रीशंकरजी के साथ भगवान् श्रीकृष्ण का युद्ध और उनकी विजय की कथा का प्रातःकाल उठकर स्मरण करता है, उसकी पराजय नहीं होती ।
 
 
 
 
 
 
 
{{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 63 श्लोक 18-31|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 64 श्लोक 1-13}}
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

११:१३, १ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितमोऽध्यायः(63) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 32-43 का हिन्दी अनुवाद

जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि बाणासुर ने तो बाणों की झड़ी लगा दी है, तब वे छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से उसकी भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई किसी वृक्ष की छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो। जब भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने देखा की बाणासुर की भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के पास आये और स्तुति करने लगे।

भगवान् शंकर ने कहा—प्रभो! आप वेदमन्त्रों में तात्पर्यरूप से छिपे हुए परमज्योतिः-स्वरुप परब्रम्ह हैं। शुद्धह्रदय महात्मागण आपके आकाश के समान सर्वव्यापक और निर्विकार (निर्लेप) स्वरुप का साक्षात्कार करते हैं। आकाश आपकी नाभि है, अग्नि मुख हैं और जल वीर्य। स्वर्ग सिर, दिशाएँ कान और पृथ्वी चरण हैं। चन्द्रमा मन, सूर्य नेत्र और मैं शिव आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका पेट है और इन्द्र भुजा। धान्यादि ओषधियाँ रोम हैं, मेघ केश हैं और ब्रम्हा बुद्धि। प्रजापति लिंग हैं और धर्म ह्रदय। इस प्रकार समस्त लोक और लोकान्तरों के साथ जिसके शरीर की तुलना की जाती है, वे परमपुरुष आप ही हैं। अखण्ड ज्योतिःस्वरुप परमात्मन्! आपका यह अवतार धर्म की रक्षा और संसार के अभ्युदय—अभिवृद्धि के लिये हुआ है। हम सब भी आपके प्रभाव से ही प्रभावान्वित होकर सातों भुवनों का पालन करते हैं। आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित हैं—एक और अद्वितीय आदिपुरुष हैं। मायाकृत जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति—इन तीन अवस्थाओं से में अनुगत और उनसे अतीत तुरीयतत्व भी आप ही हैं। आप किसी दूसरी वस्तु के द्वारा प्रकाशित नहीं होते, स्वयं प्रकाश हैं। आप सबके कारण हैं, परन्तु आपका न तोकोई कारण है और न तो आपमें कारणपना ही है।
भगवन्! ऐसा होने पर भी आप तीनों गुणों की विभिन्न विषमताओं को प्रकाशित करने के लिये अपनी माया से देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि शरीरों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होते हैं। प्रभो! जैसे सूर्य अपनी छाया बादलों से ही ढक जाता है और उन बादलों तथा विभिन्न रूपों को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आप तो स्वयं प्रकाश हैं, परन्तु गुणों के द्वारा मानो ढक-से जाते हैं और समस्त गुणों तथा गुणाभिमानी जीवों को प्रकाशित करते हैं। वास्तव में आप अनन्त हैं। भगवन्! आपकी माया से मोहित होकर लोग स्त्री-पुत्र, देह-गेह आदि में आसक्त हो जाते हैं और फिर दुःख के अपार सागर में डूबने-उतराने लगते हैं। संसार के मानवों को यह मनुष्य-शरीर आपने अत्यन्त कृपा करके दिया है। जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इन्द्रियों को वश में करता उअर आपके चरणकमलों का आश्रय नहीं लेता—उनका सेवन नहीं करता, उसका जीवन अत्यन्त शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है। प्रभो! आप समस्त प्राणियों के आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं। जो मृत्यु का ग्रास मनुष्य आपको छोड़ देता है और अनात्म, दुःखरूप एवं तुच्छ विषयों में सुखबृद्धि करके उनके पीछे भटकता है, वह इतना मूर्ख कि अमृत को छोड़कर विष पी रहा है। मैं, ब्रम्हा सारे देवता और विशुद्ध ह्रदय वाले ऋषि-मुनि सब प्रकार से और सर्वात्मभाव से आपके शरणागत हैं; क्योंकि आप ही हम लोगों के आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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