"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 41 श्लोक 1-18" के अवतरणों में अंतर

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==इकतालीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
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==एकचत्‍वारिंश (41) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: इकतालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद </div>
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विपुल का देवराज इन्‍द्र से गुरुपत्‍नी को बचाना और गुरु से वरदान प्राप्‍त करना।
  
विपुलका देवराज इन्‍द्रसे गुरुपत्‍नीको बचाना और गुरुसे वरदान प्राप्‍त करना
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भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! तदनन्‍तर किसी समय देवराज इन्‍द्र ‘यही ॠषिपत्‍नी रुचि को प्राप्‍त करने का अच्‍छा अवसर है’ –ऐसा सोचकर दिव्‍य रूप एवं शरीर धारण किये उस आश्रम में आये। नरेश्‍वर! वहाँ इन्‍द्र ने अनुपम लुभावना रूप धारण करके अत्‍यन्‍त दर्शनीय होकर उस आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ पहुँचकर उन्‍होंने देखा कि विपुल का शरीर चित्रलिखित की भांति निश्‍चेष्‍ट पड़ा है और उनके नेत्र स्थिर हैं। दूसरी ओर स्‍थूल नितम्‍ब एवं पीन पयोधरों से सुशोभित, विकसित कमलदल के समान विशाल नेत्र एवं मनोहर कटाक्ष वाली पूर्ण चन्‍द्रानना रुचि बैठी हुई दिखायी दी। इन्‍द्र को देखकर वह सहसा उनकी अगवानी के लिये उठने की इच्‍छा करने लगी। उनका सुन्‍दर रूप देखकर उसे बड़ा आश्‍चर्य हुआ था, मानो वह उनसे पूछना चाहती थी कि आप कौन हैं? नरेन्‍द्र! उसने ज्‍यों ही उठने का विचार किया त्‍यों ही विपुल ने उनके शरीर को स्‍त्‍ाब्‍ध कर दिया। उनके काबू में जाने के कारण वह हिल भी न सकी। तब देवराज इन्‍द्र ने बड़ी मधुर वाणी में उसे समझाते हुए कहा- ‘पवित्र मुस्कान वाली देवी! मुझे देवताओं का राजा इन्‍द्र समझो! मैं तुम्‍हारे लिये ही यहाँ तक आया हूँ। ‘तुम्‍हारा चिन्‍तन करने से मेरे हदय में जो काम उत्‍पन्‍न हुआ है वह मुझे बड़ा कष्‍ट दे रहा है। इसी से मैं तुम्‍हारे निकट उपस्थित हूँ। सुन्‍दरी! अब देर न करो, समय बीता जा रहा है।' देवराज इन्‍द्र की यह बात गुरुपत्‍नी के शरीर में बैठे हुए विपुल मुनि ने भी सुनी और उन्‍होंने इन्‍द्र को देख भी लिया। राजन! यह अनिन्‍द्य सुन्‍दरी रुचि विपुल के द्वारा स्‍तम्भित होने के कारण न तो उठ सकी और न इन्‍द्र को कोई उत्तर ही दे सकी। प्रभो! गुरुपत्‍नी का आकार एवं चेष्‍टा देखकर भृगुश्रेष्‍ठ विपुल उसका मनोभाव ताड़ गये थे, अत: उन महातेजस्‍वी मुनि ने योग द्वारा उसे बलपूर्वक काबू में रखा। उन्‍होंने गुरुपत्‍नी रुचि की सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को योग-सम्‍बन्‍धी बन्‍धनों से बाँध लिया था। राजन! योगबल से मोहित हुई रुचि को काम-विकार से शून्‍य देख शचीपति इन्‍द्र लज्जित हो गये और फिर उससे बोले- ‘सुन्‍दरी! आओ, आओ।' उनका आवाहन सुनकर वह फिर उन्‍हें कुछ उत्तर देने की इच्‍छा करने लगी। यह देख विपुल ने गुरुपत्‍नी की उस वाणी को जिससे वह कहना चाहती थी, बदल दिया। उसके मुँह से सहसा यह निकल पड़ा- ‘अजी! यहाँ तुम्‍हारे आने का क्‍या प्रयोजन है?’ उस चन्‍द्रोपम मुख से जब यह संस्‍कृत वाणी प्रकट हुई तब वह पराधीन हुई रुचि वह वाक्‍य कह देने के कारण बहुत लज्जित हुई। वहाँ खड़े हुए इन्‍द्र उसकी पूर्वोक्‍त बात सुनकर मन-ही-मन बहुत दु:खी हुए। प्रजानाथ! उसके मनोविकार एवं भाव-परिर्वतन को लक्ष्‍य करके सहस्‍त्र नेत्रों वाले देवराज इन्‍द्र ने दिव्‍य दृष्टि से उसकी ओर देखा। फिर तो उसके शरीर के भीतर विपुल मुनि पर उनकी दृष्टि पड़ी। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्‍ब्‍ा दिखायी देता है उसी प्रकार वे गुरुपत्‍नी के शरीर में परिलक्षित हो रहे थे। प्रभो! घोर तपस्‍या से युक्‍त विपुल मुनि को देखते ही इन्‍द्र शाप के भय से संत्रस्‍त हो थर-थर काँपने लगे।
भीष्‍मजी कहते हैं- राजन्! तदनन्‍तर किसी समय देवराज इन्‍द्र ‘यही ॠषिपत्‍नी रुचिको प्राप्‍त करने का अच्‍छा अवसर है’ –ऐसा सोचकर दिव्‍य रुप एवं शरीर धारण किये उस आश्रममें आये। नरेश्‍वर! वहॉं इन्‍द्रने अनुपम लुभावना रुप धारण करके अत्‍यन्‍त दर्शनीय होकर उस आश्रममें प्रवेश किया। वहॉं पहुँचकर उन्‍होंने देखा कि विपुलका शरीर चित्रलिखितकी भांति निश्‍चेष्‍ट पड़ा है और उनके नेत्र स्थिर हैं। दूसरी ओर स्‍थूल नितम्‍ब एवं पीन पयोधरोंसे सुशोभित, विकसित कमलदलके समान विशाल नेत्र एवं मनोहर कटाक्षवाली पूर्णचन्‍द्रानना रुचि बैठी हुई दिखायी दी। इन्‍द्रको देखकर वह सहसा उनकी अगवानीके लिये उठनेकी इच्‍छा करने लगी। उनका सुन्‍दर रुप देखकर उसे बड़ा आश्‍चर्य हुआ था, मानो वह उनसे पूछना चाहती थी कि आप कौन हैं? नरेन्‍द्र ! उसने ज्‍यों ही उठनेका विचार किया त्‍यों ही विपुलने उनके शरीरको स्‍त्‍ाब्‍ध कर दिया। उनके काबूमें जानेके कारण वह हिल भी न सकी। तब देवराज इन्‍द्रने बड़ा मधुर वाणीमें उसे समझाते हुए कहा- ‘पवित्र मुसकानवाली देवी ! मुझे देवताओंका राजा इन्‍द्र समझो ! मैं तुम्‍हारे लिये ही यहॉंतक आया हूँ। ‘तुम्‍हारा चिन्‍तन करनेसे मेरे हदयमें जो काम उत्‍पन्‍न हुआ है वह मुझे बड़ा कष्‍ट दे रहा है। इसीसे मैं तुम्‍हारे निकट उपस्थित हूँ। सुन्‍दरी ! अब देर न करो, समय बीता जा रहा है’। देवराज इन्‍द्रकी यह बात गुरुपत्‍नीके शरीरमें बैठे हुए विपुल मुनिने भी सुनी और उन्‍होंने इन्‍द्रको देख भी लिया। राजन् ! यह अनिन्‍द्य सुन्‍दरी रुचि विपुलके द्वारा स्‍तम्भित होनेके कारण न तो उठ सकी और न इन्‍द्रको कोई उतर ही दे सकी। प्रभो ! गुरुपत्‍नीका आकार एवं चेष्‍टा देखकर भृगुश्रेष्‍ठ विपुल उसका मनोभाव ताड़ गये थे, अत: उन महा तेजस्‍वी मुनिने योगद्वारा उसे बलपूर्वक काबूमें रखा। उन्‍होंने गुरुपत्‍नी रुचिकी सम्‍पूर्ण इन्द्रियोंको योग-सम्‍बन्‍धी बन्‍धनोंसे बॉंध लिया था। राजन् ! योगबलसे मोहित हुई रुचिको काम-विकारसे शुन्‍य देख शचीपति इन्‍द्र लज्जित हो गये और फिर उससे बोले- ‘सुन्‍दरी ! आओ, आओ।‘ उनका आवाहन सुनकर वह फिर उन्‍हें कुछ उतर देनेकी इच्‍छा करने लगी। यह देख विपुलने गुरुपत्‍नीकी उस वाणीको जिसे वह कहना चाहती थी, बदल दिया। उसके मुँह से सहसा यह निकल पड़ा- ‘अजी ! यहॉं तुम्‍हारे आनेका क्‍या प्रयोजन हे?’ उस चन्‍द्रोपम मुखसे जब यह संस्‍कृत वाणी प्रकट हुई तब वह पराधीन हुई रुचि वह वाक्‍य कह देनेके कारण बहुत लज्जित हुई। वहॉं खड़े हुए इन्‍द्र उसकी पूर्वोक्‍त बात सुनकर मन-ही-मन बहुत दु:खी हुए। प्रजानाथ ! उसके मनोविकार एवं भाव-परिर्वतनको लक्ष्‍य करके सहस्‍त्र नेत्रोंवाले देवराज इन्‍द्रने दिव्‍य दृष्टिसे उसकी ओर देखा। फिर तो उसके शरीरके भीतर विपुल मुनिपर उनकी दृष्टि पड़ी। जैसे दर्पणमें प्रतिबिम्‍ब्‍ा दिखायी देता है उसी प्रकार वे गुरुपत्‍नीके शरीरमें परिलक्षित हो रहे थे। प्रभो ! घोर तपस्‍यासे युक्‍त विपुल मुनिको देखते ही इन्‍द्र शापके भयसे संत्रस्‍त हो थर-थर कॉंपने लगे। इसी समय महातपस्‍वी विपुल गुरुपत्‍नीको छोड़कर अपने शरीरमें आ गये और डरे हुए इन्
 
विपुलने कहा- ‘पापात्‍मा पुरन्‍दर ! तेरी बुध्दि बड़ी खोटी हैं। तु सदा इन्द्रियोंका गुलाम बना रहता है। यदि यही दशा रही तो अब देवता तथा मनुष्‍य अधिक कालतक तेरी पूजा नहीं करेंगे। इन्‍द्र ! क्‍या तू उस घटनाको भूल गया? क्‍या तेरे मनमें उसकी याद नहीं रह गयी है? जब कि महर्षि गौतमने तेरे सारे शरीरमें भगके (हजार) चिहन बनाकर तुझे जीवित छोड़ था। मैं जानता हूँ कि तू मुर्ख है, तेरा मन वशमें नहीं और तू महाचंचल है। पापी मूढ़ ! यह स्‍त्री मेरे द्वारा सुरक्षित है। तू जैसे आया है, उसी तरह लौट जा। मूढचित इन्‍द्र ! मैं अपने तेजसे तुझे जलाकर भस्‍म कर सकता हूँ। केवल दया करके ही तुझे इस समय जलाना नहीं चाहता। मेरे बुध्दिमान गुरु बड़े भयंकर हैं। वे तुझ पापात्‍माको देखते ही आज क्रोधसे उदीप्‍त हुई दृष्टिद्वारा दग्‍ध कर डालेंगे। इन्‍द्र ! आजसे फिर कभी ऐसा काम न करना। तुझे ब्राहामणोंका सम्‍मान करना चाहिये, अन्‍यथा कहीं ऐसा न हो कि तुझे ब्राहातेजसे पीड़ित होकर पुत्रों और मन्त्रियोंसहित कालके गालमें जाना पड़े। मैं अमर हूँ- ऐसी बुध्दि का आश्रय लेकर यदि तू स्‍वेच्‍छाचारमें प्रवृत हो रहा है तो (मैं तुझे सचेत किये देता हूँ) यों किसी तपस्‍वीका अपमान न किया कर; क्‍योंकि तपस्‍यासे कोई भी कार्य असाध्‍य नहीं है (तपस्‍वी अमरोंको भी मार सकता है)। भीष्‍मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! महात्‍मा विपुलका वह कथन सुनकर इन्‍द्र बहुत लज्जित हुए और कुछ भी उतर न देकर वहीं अन्‍तर्धान हो गये। उनके गये अभी एक मूहूर्त बीतने पाया था कि महा तपस्‍वी देवशर्मा इच्‍छानुसार यज्ञ पूर्ण करके अपने आश्रमपर लौट आये। राजन् ! गुरुके आनेपर उनका प्रिय कार्य करनेवाले विपुलने अपने द्वारा सुरक्षित हुई उनकी सती-साध्‍वी भार्या रुचिको उन्‍हें सौंप दिया। शान्‍त चितवाले गुरुप्रेमी विपुल गुरुदेवको प्रणाम करके पहलेकी ही भांति निर्भीक होकर उनकी सेवामें उपस्थित हुए। जब गुरुजी विश्राम करके अपनी पत्‍नीके साथ बैठे,तब विपुलने वह सारी करतूत उन्‍हे बतायी। यह सुनकर प्रतापी मुनि देवशर्मा विपुलके शील, सदाचार, तप और नियमसे बहुत संतुष्‍ट हुए। विपुलकी गुरुसेवावृति, अपने प्रति भक्ति और धर्मविषयक दृढ़ता देखकर गुरुने ‘बहुत अच्‍छा, बहुत अच्‍छा’ कहकर उनकी प्रशंसा की। परम बुध्दिमान् धर्मात्‍मा देवशर्माने अपने धर्म-परायण शिष्‍य विपुलको पाकर उन्‍हें इच्‍छानुसार वर मॉंगनेको कहा। गुरुवत्‍सल विपुलने गुरुसे यही वर मॉंगा कि ‘मेरी धर्ममें निरन्‍तर स्थिति बनी रहे।‘ फिर गुरुकी आज्ञा लेकर उन्‍होंने सर्वोतम तपस्‍या आरम्‍भ की। महा तपस्‍वी देवशर्मा भी बल और वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्‍द्रसे निर्भय हो पत्‍नीसहित उस निर्जन वनमें विचरने लगे।
 
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्‍यानविषयक इकतालीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 40 श्लोक 41-60|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 41 श्लोक 19-36}}
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 40 श्लोक 33-60|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 42 श्लोक 1-33}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासनपर्व]]
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०६:१६, ६ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

एकचत्‍वारिंश (41) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

विपुल का देवराज इन्‍द्र से गुरुपत्‍नी को बचाना और गुरु से वरदान प्राप्‍त करना।

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! तदनन्‍तर किसी समय देवराज इन्‍द्र ‘यही ॠषिपत्‍नी रुचि को प्राप्‍त करने का अच्‍छा अवसर है’ –ऐसा सोचकर दिव्‍य रूप एवं शरीर धारण किये उस आश्रम में आये। नरेश्‍वर! वहाँ इन्‍द्र ने अनुपम लुभावना रूप धारण करके अत्‍यन्‍त दर्शनीय होकर उस आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ पहुँचकर उन्‍होंने देखा कि विपुल का शरीर चित्रलिखित की भांति निश्‍चेष्‍ट पड़ा है और उनके नेत्र स्थिर हैं। दूसरी ओर स्‍थूल नितम्‍ब एवं पीन पयोधरों से सुशोभित, विकसित कमलदल के समान विशाल नेत्र एवं मनोहर कटाक्ष वाली पूर्ण चन्‍द्रानना रुचि बैठी हुई दिखायी दी। इन्‍द्र को देखकर वह सहसा उनकी अगवानी के लिये उठने की इच्‍छा करने लगी। उनका सुन्‍दर रूप देखकर उसे बड़ा आश्‍चर्य हुआ था, मानो वह उनसे पूछना चाहती थी कि आप कौन हैं? नरेन्‍द्र! उसने ज्‍यों ही उठने का विचार किया त्‍यों ही विपुल ने उनके शरीर को स्‍त्‍ाब्‍ध कर दिया। उनके काबू में आ जाने के कारण वह हिल भी न सकी। तब देवराज इन्‍द्र ने बड़ी मधुर वाणी में उसे समझाते हुए कहा- ‘पवित्र मुस्कान वाली देवी! मुझे देवताओं का राजा इन्‍द्र समझो! मैं तुम्‍हारे लिये ही यहाँ तक आया हूँ। ‘तुम्‍हारा चिन्‍तन करने से मेरे हदय में जो काम उत्‍पन्‍न हुआ है वह मुझे बड़ा कष्‍ट दे रहा है। इसी से मैं तुम्‍हारे निकट उपस्थित हूँ। सुन्‍दरी! अब देर न करो, समय बीता जा रहा है।' देवराज इन्‍द्र की यह बात गुरुपत्‍नी के शरीर में बैठे हुए विपुल मुनि ने भी सुनी और उन्‍होंने इन्‍द्र को देख भी लिया। राजन! यह अनिन्‍द्य सुन्‍दरी रुचि विपुल के द्वारा स्‍तम्भित होने के कारण न तो उठ सकी और न इन्‍द्र को कोई उत्तर ही दे सकी। प्रभो! गुरुपत्‍नी का आकार एवं चेष्‍टा देखकर भृगुश्रेष्‍ठ विपुल उसका मनोभाव ताड़ गये थे, अत: उन महातेजस्‍वी मुनि ने योग द्वारा उसे बलपूर्वक काबू में रखा। उन्‍होंने गुरुपत्‍नी रुचि की सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को योग-सम्‍बन्‍धी बन्‍धनों से बाँध लिया था। राजन! योगबल से मोहित हुई रुचि को काम-विकार से शून्‍य देख शचीपति इन्‍द्र लज्जित हो गये और फिर उससे बोले- ‘सुन्‍दरी! आओ, आओ।' उनका आवाहन सुनकर वह फिर उन्‍हें कुछ उत्तर देने की इच्‍छा करने लगी। यह देख विपुल ने गुरुपत्‍नी की उस वाणी को जिससे वह कहना चाहती थी, बदल दिया। उसके मुँह से सहसा यह निकल पड़ा- ‘अजी! यहाँ तुम्‍हारे आने का क्‍या प्रयोजन है?’ उस चन्‍द्रोपम मुख से जब यह संस्‍कृत वाणी प्रकट हुई तब वह पराधीन हुई रुचि वह वाक्‍य कह देने के कारण बहुत लज्जित हुई। वहाँ खड़े हुए इन्‍द्र उसकी पूर्वोक्‍त बात सुनकर मन-ही-मन बहुत दु:खी हुए। प्रजानाथ! उसके मनोविकार एवं भाव-परिर्वतन को लक्ष्‍य करके सहस्‍त्र नेत्रों वाले देवराज इन्‍द्र ने दिव्‍य दृष्टि से उसकी ओर देखा। फिर तो उसके शरीर के भीतर विपुल मुनि पर उनकी दृष्टि पड़ी। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्‍ब्‍ा दिखायी देता है उसी प्रकार वे गुरुपत्‍नी के शरीर में परिलक्षित हो रहे थे। प्रभो! घोर तपस्‍या से युक्‍त विपुल मुनि को देखते ही इन्‍द्र शाप के भय से संत्रस्‍त हो थर-थर काँपने लगे।


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