"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-19" के अवतरणों में अंतर

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== बीसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
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==विंश (20) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: बीसवां अध्याय: श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद </div>
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अष्टावक्र और उत्‍तर दिशा का संवाद
  
अष्टावक्र और उत्‍तर दिशाका संवाद
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भीष्म जी कहते हैं- राजन! ऋषि की बात सुनकर उस स्त्री ने कहा- बहुत अच्छा, ऐसा ही हो| कहकर वह दिव्य तेल और स्नानोपयोगी वस्त्र ले आयी। फिर उन महात्मा मुनि की आज्ञा लेकर उस स्त्री ने उनके सारे अंगों में तेल की मालिश की। फिर उसके उठाने पर वे धीरे से वहां स्नान गृह में गये। वहां ऋषि को एक विचित्र एवं नूतन चौकी प्राप्त हुई। जब वे उस सुन्दर चैकी पर बैठ गये तब उस स्त्री ने धीरे-धीरे हाथों के कोमल स्पर्श से उन्हें नहलाया। उसने मुनि के लिये विधिपूर्वक सम्पूर्ण दिव्य सामग्री प्रस्तुत की। वे महाव्रतधारी मुनि उसके दिये हुए कुछ- कुछ गरम होने के कारण सुखदायक जल से नहाकर उसके हाथों के सुखद स्पर्श से सेवित होकर इतने आनन्दविभोर हो गये कि कब सारी रात बीत गयी ? इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं हुआ। तदनन्तर वे मुनि अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर उठ बैठे। उन्होंने देखा कि पूर्व-दिशा के आकाश में सूर्य देव का उदय हो गया है। वे सोचने लगे, क्या यह मेरा मोह है या वास्तव में सूर्योदय हो गया है। फिर तो तत्काल स्नान, संध्योपासना और सूर्योपस्थान करके उससे बोले, अब क्या करूं ? तब उस स्त्री ने ऋषि के समक्ष अमृतरस के समान मधुर अन्न परोसकर रखा। उस अन्न के स्वाद से वे इतने आकृष्ट हो गये कि उसे पर्याप्त न मान सके-बस अब पूरा हो गया। यह बात न कह सके। इसी में सारा दिन निकल गया और पुनः संध्याकाल आ पहुँचा। इसके बाद उस स्त्री ने भगवान अष्टावक्र से कहा-अब आप सो जाइये।फिर वहीं उनके और उस स्त्री के लिये दो शय्याएँ बिछायी गयीं। उस समय वह स्त्री और मुनि दोनों अलग-अलग सो गये। जब आधी रात हुई तबवह स्त्री उठकर मुनि की शय्या पर आ बैठी। अष्टावक्र उवाच अष्टावक्र बोले-भद्रे! मेरा मन परायी स्त्रियों में आसक्त नहीं होता है। तुम्हारा भला हो, यहां से उठो और स्वयं ही इस पापकर्म से विरत हो जाओ। भीष्म कहते हैं-राजन! इस प्रकार उन ब्रहमार्षि के लौटाने पर उसने कहा- मैं स्वतंत्र हूं; अतः मेरे साथ समागम करने से आपके धर्म की छलना नहीं होगी। अष्टावक्र बोले-भद्रे! स्त्रियों की स्वतंत्रता नहीं सिद्ध होती; क्योंकि वे परतंत्र मानी गयी हैं। प्रजापति का यह मत है कि स्त्री स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है। स्त्री बोली- ब्रहामन!मुझे मैथुन की भूख सता रही है। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, इस पर भी तो दृष्टिपात कीजिये। विप्रवर! यदि आप मुझे संतुष्ट नहीं करते हैं तो आपको पाप लगेगा। अष्टावक्र ने कहा- भद्रे! स्वेच्छाचारी मनुष्य को ही सब प्रकार के पाप समूह अपनी ओर खींचते हैं। मैं धैर्य के द्वारा सदा अपने मन को काबू में रखता हूं; अतः तुम अपनी शय्या पर लौट जाओ। स्त्री बोली- अनघ! विप्रवर! मैं सिर झुकाकर प्रणाम करती हूं और आपके सामने पृथ्वी पर पड़ी हूं। आप मुझ पर कृपा करें और मुझे शरण दें। ब्रहामन्!यदि आप परायी स्त्रियों के साथ समागम में दोष देखते हैं तो मैं स्वयं आपको अपना दान करती हूं। आप मेरा पाणिग्रहण कीजिये। मै सच कहती हूं, आपको कोई दोष नहीं लगेगा। आप मुझे स्वतंत्र समझिये। इसमें जो पाप होता है, वह मुझे ही लगे। मेरा चित आपके ही चिन्तन में लगा है। मैं स्वतंत्र हूं; अतः मुझे स्वीकार कीजिये।  
भीष्मजी कहते हैं-राजन्! ऋषिकी बात सुनकर उस स्त्रीने कहा-बहुत अच्छा, ऐसा ही होयों कहकर वह दिव्य तेल और स्नानोपयोगी वस्त्र ले आयी। फिर उन महात्मा मुनिकी आज्ञा लेकर उस स्त्रीने उनके सारे अंगोंमें तेलकी मालिश की। फिर उसके उठानेपर वे धीरेसे वहां स्नानगृहमें गये। वहां ऋषिको एक विचित्र एवं नूतन चैकी प्राप्त हुई। जब वे उस सुन्दर चैकीपर बैठ गये तब उस स्त्रीने धीरे-धीरे हाथोंके कोमल स्पर्शसे उन्हें नहलाया। उसने मुनिके लिये विधिपूर्वक सम्पूर्ण दिव्य सामग्री प्रस्तुत की। वे महाव्रतधारी मुनि उसके दिये हुए कुछ- कुछ गरम होनेके कारण सुखदायक जलसे नहाकर उसके हाथोंके सुखद स्पर्शसे सेवित होकर इतने आनन्दविभोर हो गये कि कब सारी रात बीत गयी ? इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं हुआ। तदनन्तर वे मुनि अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर उठ बैठे। उन्होंने देखा कि पूर्व-दिशाके आकाशमें सूर्यदेवका उदय हो गया है। वे सोचने लगे, क्या यह मेरा मोह है या वास्तव में सूर्योदय हो गया है। फिर तो तत्काल स्नान, संध्योपसाना और सूर्योपस्थान करके उससे बोले, अब क्या करूं ? तब उस स्त्रीने ऋषि के समक्ष अमृतरस के समान मधुर अन्न परोसकर रखा। उस अन्नके स्वादसे वे इतने आकृष्ट हो गये कि उसे पर्याप्त न मान सके-बस अब पूरा हो गयायह बात न कह सके। इसीमें सारा दिन निकल गया और पुनः संध्याकाल आ पहुचा। इसके बाद उस स्त्रीने भगवान् अष्टावक्रसे कहा-अब आप सो जाइये।फिर वहीं उनके और उस स्त्रीके लिये दोषयाएं बिछायी गयीं। उस समय वह स्त्री और मुनि दोनों अलग-अलग सो गये। जब आधी रात हुई तबवह स्त्री उठकर मुनिकी शयापर आ बैठी। अष्टावक्र उवाच अष्टावक्र बोले-भदे्र! मेरा मन परायी स्त्रियोंमें आसक्त नहीं होता है। तुम्हारा भला हो, यहां से उठो और स्वयं ही इस पापकर्म से विरत हो जाओ। भीष्म कहते हैं-राजन्! इस प्रकार उन ब्रहमार्षि के लौटानेपर उसने कहा-मैं स्वतंत्र हूं; अतः मेरे साथ समागम करनेसे आपके धर्मकी छलना नहीं होगी। अष्टावक्र बोले-भद्रे! स्त्रियोंकी स्वतंत्रता नहीं सिद्ध होती; क्योंकि वे परतंत्र मानी गयी है। प्रजापति का यह मत है कि स्त्री स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है। स्त्री बोली- ब्रहामन्!मुझे मैथुन की भूख सता रही है। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, इसपर भी तो दृष्टिपात कीजिये। विप्रवर! यदि आप मुझे संतुष्ट नहीं करते है तो आपको पाप लगेगा। अष्टावक्र ने कहा-भद्रे! स्वेच्छाचारी मनुष्यको ही सब प्रकार के पाप समूह अपनी ओर खींचते है। मैं धैर्य के द्वारा सदा अपने मनको काबूमें रखता हूं; अतः तुम अपनी शयापर लौट जाओ। स्त्री बोली-अनघ! विप्रवर! मैं सिर झुकाकर प्रणाम करती हूं और आपके सामने पृथ्वीपर पड़ी हूं। आप मुझपर कृपा करें और मुझे शरण दें। ब्रहामन्!यदि आप परायी स्त्रियोंके साथ समागममें दोष देखते है तो मैं स्वयं आपको अपना दान करती हूं। आप मेरा पाणिग्रहण कीजिये। मै सच कहती हूं, आपको कोई दोष नहीं लगेगा। आप मुझे स्वतंत्र समझिये। इसमें जो पाप होता है, वह मुझे ही लगे। मेरा चित आपके ही चिन्तनमें लगा है। मैं स्वतंत्र हूं; अतः मुझे स्वीकार कीजिये। अष्टावक्र ने कहा- भद्रे! तुम स्वतंत्र कैसे हो ? इसमें जो कारण हो, वह बताओं! तीनों लोकोंमें कोई ऐसी स्त्री नहीं है जो स्वतंत्र रहने योग्य हो। कुमारावस्थामें पिता इसकी रक्षा करते हैं, जवानीमें वह पतिके संरक्षणमें रहती है और बुढ़ापेमें पुत्र उसकी देखभाल करते है। इस प्रकार स्त्रियोंके लिये स्वतंत्रता नहीं है। स्त्री बोली- विप्रवर! मैं कुमारावस्थासे ही ब्रह्माचारिणी हूं; अतः कन्या ही हूं-इसमें संशय नहीं है। अब आप मुझे पत्नी बनाइये। मेरी श्रद्धाका नाश न कीजिये।। अष्टावक्र ने कहा- जैसी मेरी दशा है, वैसी तुम्हारी है और जैसी तुम्हारी दशा है, वैसी मेरी है। यह वास्तवमें वदान्य ऋषिके द्वारा परीक्षा ली जा रही है या सचमुच यह कोई विध्न तो नहीं है? (वे मन-ही-मन सोचन लगे-) यह पहले वृद्धा थी और अब दिव्य वस्त्राभूषणोंसे विभूषित कन्यारूप होकर मेरी सेवामें उपस्थित है। यह बड़े ही आश्चर्यकी बात है। क्या यह मेरे लिये कल्याणकारी रहेगा ? परंतु इसका यह परम सुन्दर रूप पहले जराजीर्ण कैसे हो गया था और अब यहां यह कन्यारूप कैसे प्रकट हो गया ? ऐसी दशामें यहां उसके लिये क्या उत्‍तर हो सकता है? मुझमें कामको दमन करनेकी शक्ति है और पूर्वप्राप्त मुनि-कन्याको किसी तरह भी प्राप्त करनेका धैर्य बना हुआ है। इस शक्ति और धृतिके ही सहारे में किसी तरह विचलित नहीं होउंगा। मुझे धर्मका उल्लंघन अच्छा नहीं लगता। मैं सत्यके सहारे से पत्नीको प्राप्त करूंगा।
 
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अष्टावक्र और उत्‍तरदिशाका संवादविषयक बीसवां अध्याय पूरा हुआ।</div>
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 87-103|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 20 श्लोक 20-26}}
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 19 श्लोक 67-103|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 21श्लोक 1-19}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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०४:५४, ५ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

विंश (20) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

अष्टावक्र और उत्‍तर दिशा का संवाद

भीष्म जी कहते हैं- राजन! ऋषि की बात सुनकर उस स्त्री ने कहा- बहुत अच्छा, ऐसा ही हो| कहकर वह दिव्य तेल और स्नानोपयोगी वस्त्र ले आयी। फिर उन महात्मा मुनि की आज्ञा लेकर उस स्त्री ने उनके सारे अंगों में तेल की मालिश की। फिर उसके उठाने पर वे धीरे से वहां स्नान गृह में गये। वहां ऋषि को एक विचित्र एवं नूतन चौकी प्राप्त हुई। जब वे उस सुन्दर चैकी पर बैठ गये तब उस स्त्री ने धीरे-धीरे हाथों के कोमल स्पर्श से उन्हें नहलाया। उसने मुनि के लिये विधिपूर्वक सम्पूर्ण दिव्य सामग्री प्रस्तुत की। वे महाव्रतधारी मुनि उसके दिये हुए कुछ- कुछ गरम होने के कारण सुखदायक जल से नहाकर उसके हाथों के सुखद स्पर्श से सेवित होकर इतने आनन्दविभोर हो गये कि कब सारी रात बीत गयी ? इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं हुआ। तदनन्तर वे मुनि अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर उठ बैठे। उन्होंने देखा कि पूर्व-दिशा के आकाश में सूर्य देव का उदय हो गया है। वे सोचने लगे, क्या यह मेरा मोह है या वास्तव में सूर्योदय हो गया है। फिर तो तत्काल स्नान, संध्योपासना और सूर्योपस्थान करके उससे बोले, अब क्या करूं ? तब उस स्त्री ने ऋषि के समक्ष अमृतरस के समान मधुर अन्न परोसकर रखा। उस अन्न के स्वाद से वे इतने आकृष्ट हो गये कि उसे पर्याप्त न मान सके-बस अब पूरा हो गया। यह बात न कह सके। इसी में सारा दिन निकल गया और पुनः संध्याकाल आ पहुँचा। इसके बाद उस स्त्री ने भगवान अष्टावक्र से कहा-अब आप सो जाइये।फिर वहीं उनके और उस स्त्री के लिये दो शय्याएँ बिछायी गयीं। उस समय वह स्त्री और मुनि दोनों अलग-अलग सो गये। जब आधी रात हुई तबवह स्त्री उठकर मुनि की शय्या पर आ बैठी। अष्टावक्र उवाच अष्टावक्र बोले-भद्रे! मेरा मन परायी स्त्रियों में आसक्त नहीं होता है। तुम्हारा भला हो, यहां से उठो और स्वयं ही इस पापकर्म से विरत हो जाओ। भीष्म कहते हैं-राजन! इस प्रकार उन ब्रहमार्षि के लौटाने पर उसने कहा- मैं स्वतंत्र हूं; अतः मेरे साथ समागम करने से आपके धर्म की छलना नहीं होगी। अष्टावक्र बोले-भद्रे! स्त्रियों की स्वतंत्रता नहीं सिद्ध होती; क्योंकि वे परतंत्र मानी गयी हैं। प्रजापति का यह मत है कि स्त्री स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है। स्त्री बोली- ब्रहामन!मुझे मैथुन की भूख सता रही है। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, इस पर भी तो दृष्टिपात कीजिये। विप्रवर! यदि आप मुझे संतुष्ट नहीं करते हैं तो आपको पाप लगेगा। अष्टावक्र ने कहा- भद्रे! स्वेच्छाचारी मनुष्य को ही सब प्रकार के पाप समूह अपनी ओर खींचते हैं। मैं धैर्य के द्वारा सदा अपने मन को काबू में रखता हूं; अतः तुम अपनी शय्या पर लौट जाओ। स्त्री बोली- अनघ! विप्रवर! मैं सिर झुकाकर प्रणाम करती हूं और आपके सामने पृथ्वी पर पड़ी हूं। आप मुझ पर कृपा करें और मुझे शरण दें। ब्रहामन्!यदि आप परायी स्त्रियों के साथ समागम में दोष देखते हैं तो मैं स्वयं आपको अपना दान करती हूं। आप मेरा पाणिग्रहण कीजिये। मै सच कहती हूं, आपको कोई दोष नहीं लगेगा। आप मुझे स्वतंत्र समझिये। इसमें जो पाप होता है, वह मुझे ही लगे। मेरा चित आपके ही चिन्तन में लगा है। मैं स्वतंत्र हूं; अतः मुझे स्वीकार कीजिये।


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