"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 62-76" के अवतरणों में अंतर

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प्राणियों के सार का नाम है धाम और ऋत का अर्थ है सत्य, ऐसा विद्वानों ने विचार किया है। इसीलिये ब्राह्मणों ने तत्काल मेरा नाम ‘ऋतधाम’ रख दिया था।। मैंने पूर्वकाल में नष्ट होकर रसाजल में गसी हुई पृथ्वी को पुनः वराहरूप धारण करके प्रापत किया था, इसलिये देवताओं ने अपनी वाणी द्वारा ‘गोविन्द’ कहकर मेरी स्तुति की थी (गां विदन्ति इति गोविन्दः- जो पृथ्वी को प्राप्त करे, उसका नाम गोविन्द है)। मेरे ‘शिपिविष्ट’ नाम की व्याख्या इस प्रकार है। रोमहीन प्राणी को शिपि कहते हैं- तथा विष्ट का अर्थ है व्यापक। मैंने निराकार रूप से समस्त जगत् का व्याप्त कर रखा है, इसलिये मुझे ‘शिपिविष्ट’ कहते हैं। यास्कमुनि ने शान्तचित्त होकर अनेक यज्ञों में शिपिविष्ट कहकर मेरी महिमा का गान किया है; अतः मैं इस गुह्यनाम को धारणकरता हूँ। उदारचेता यास्क मुनि ने शिपिविष्ट नाम से मेरी स्तुति करके मेरी ही कृपा से पाताल लोक में नष्ट हुए निरुक्तशास्त्र को पुनः प्रापत किया था। मैंने न पहले कभी जन्म लिया है, न अब जन्म लेता हूँ और न आगे कभी जनम लूँगा। मैं समस्त प्राणियों के शरीर में रहने वाला क्षेत्रज्ञ आतमा हूँ। इसीलिये मेरा नाम ‘अज’ है। मैंने कभी ओछी या अश्लील बात मुँह से नहीं निकाली है। सत्यस्वरूपा ब्रह्मपुत्री सरस्वतीदेवी मेरी वाणी है। कुन्तीकुमार ! सत् और असत् को भी मैंने अपने भीतर ही प्रविष्ट कर रक्खा है; इसलिये मेरे नाीिा-कमलरूप ब्रह्मलोक में रहने वाले ऋषिगण मुण्े ‘सत्य’ कहते हैं।  धनंजय ! मैं पहले कभी सत्त्व से च्युत नहीं हुआ हूँ। सत्त्व को मुझसे ही उत्पन्न हुआ समझो। मेरा वह पुरातन सत्त्व इस अवतार काल में भी विद्यमान है। सत्त्व के कारण ही मैं पाप से रहित हो निष्काम कर्म में लगा रहता हूँ। भगवत्प्राप्त पुरुषों के सात्त्वज्ञान (पांचरात्रादि वैष्णवतन्त्र) से मेरे स्वरूप का बोध होता है। इन सब कारणों से लोग मझे ‘सात्त्वत’ कहते हैं। पृथापुत्र अर्जुन ! मैं काले लोहे का विशाल फाल बनकर इस पृथ्वी को जोतता हूँ तथा मेरे शरीर का रंग भी काला है, इसलिए मैं ‘कृष्ण’ कहलाता हूँ<ref>  ‘कृष्ण’ नाम की दूसरी व्युत्पत्ति भी इस प्रकार है- कृष् नाम है सत् का और ण कहते हैं आनन्द को। इन दोनो से उपलक्षित सच्चिदानन्दघन श्यामसुन्दर गोलोकविहारी नन्दनन्दन श्रीकृष्ण कहलाते हैं।</ref>। मैंने भूमि को जल के साथ, आकाश को वायु के साथ और वायु को तेज के साथ संयुक्त किया है। इसलिये (पाँचों भूतों को मिलाने में जिनकी शक्ति कभी कुण्ठित नहीं होती, वे भगवान् वैकुण्ठ हैं, इस व्युत्पत्ति के अनुसार) मैं ‘वैकुण्ठ कहलाता हूँ। परम याान्तिमय जो ब्रह्म है, वही परम धर्म कहा गया है। उससे पहले कभी में च्युत नहीं हुआ हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘अच्युत’ कहते हैं। (‘अधः’ का अर्थ है पृथ्वी, ‘अक्ष’ का अर्थ है आकाश और ‘ज’ का अर्थ है इनको धारण करने वाला) पृथ्वी और आकाश दोनों सर्वतोमुखी एवं प्रसिद्ध हैं। उनको अनायास ही धारण करने के कारण लोग मुझे ‘अधोक्षज’ कहते हैं। वेदों के शब्द और अर्थ पर विचार करने वाले वेदवेत्ता विद्वान प्राग्वंश (यज्ञशाला के एक भाग) में बैठकर अधोक्षज नाम से मेरी महिमा का गान करते हैं; इसलिये भी मेरा नाम ‘अधोक्षज’ है। जिसके अनुग्रह से जीव अधोगति में पड़कर क्षीण नहीं होता, उन भगवान् को दूसरे लोग इसी व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अधोक्षज’ कहते हैं।। महर्षि लोग ‘अधोक्षज’ शब्द को पृथक्-पृथक् तीन पदों का एक समुदाय मानते हैं- ‘अ’ का अर्थ है लय-स्थान, ‘धोक्ष’ का अर्थ है पालन-स्थान और ‘ज’ का अर्थ है उत्पत्ति-स्थान। उत्पत्ति, स्थिति और लय के स्थान एकमात्र नारायण ही हैं; अतः उन भगवान् नारायण को छोड़कर संसार में दूसरा कोई ‘अधोक्षज’ नहीं कहला सकता। प्राणियों के प्राणों की पुष्टि करने वाला घृत मेरे स्वरूपभूत अग्निदेव की अर्चिष् अर्थात् ज्वाला को जगाने वाला है, इसलिये शान्तचित्त वेदज्ञ विद्वानों ने मुण्े ‘घृतार्चि’ कहा है। शरीर में तीन धातु विख्यात हैं वात्, पित्त और कफ। वे सब-के-सब कर्मजन्य माने गये हैं। इनके समुदाय को त्रिधातु कहते हैं। जीव इल धातुओं के रहने से जीवन धारण करते हैं और उनके क्षीण हो जाने पर क्षीण हो जाते हैं। इसलिये आयुर्वेद के विद्वान् मुझे ‘त्रिधातु’ कहते हैं।भरतनन्दन ! भगवान् धर्म सम्पूर्ण लोकों में वृष के नाम से विख्यात हैं। वैदिक याब्दार्थ बोधक कोश में वृष का अर्थ धर्म बताया गया है; अतः उत्तम धर्म स्वरूप मुझ वासुदेव को ‘वृष’ समझो।
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प्राणियों के सार का नाम है धाम और ऋत का अर्थ है सत्य, ऐसा विद्वानों ने विचार किया है। इसीलिये ब्राह्मणों ने तत्काल मेरा नाम ‘ऋतधाम’ रख दिया था।। मैंने पूर्वकाल में नष्ट होकर रसाजल में गसी हुई पृथ्वी को पुनः वराहरूप धारण करके प्रापत किया था, इसलिये देवताओं ने अपनी वाणी द्वारा ‘गोविन्द’ कहकर मेरी स्तुति की थी (गां विदन्ति इति गोविन्दः- जो पृथ्वी को प्राप्त करे, उसका नाम गोविन्द है)। मेरे ‘शिपिविष्ट’ नाम की व्याख्या इस प्रकार है। रोमहीन प्राणी को शिपि कहते हैं- तथा विष्ट का अर्थ है व्यापक। मैंने निराकार रूप से समस्त जगत् का व्याप्त कर रखा है, इसलिये मुझे ‘शिपिविष्ट’ कहते हैं। यास्कमुनि ने शान्तचित्त होकर अनेक यज्ञों में शिपिविष्ट कहकर मेरी महिमा का गान किया है; अतः मैं इस गुह्यनाम को धारणकरता हूँ। उदारचेता यास्क मुनि ने शिपिविष्ट नाम से मेरी स्तुति करके मेरी ही कृपा से पाताल लोक में नष्ट हुए निरुक्तशास्त्र को पुनः प्रापत किया था। मैंने न पहले कभी जन्म लिया है, न अब जन्म लेता हूँ और न आगे कभी जनम लूँगा। मैं समस्त प्राणियों के शरीर में रहने वाला क्षेत्रज्ञ आतमा हूँ। इसीलिये मेरा नाम ‘अज’ है। मैंने कभी ओछी या अश्लील बात मुँह से नहीं निकाली है। सत्यस्वरूपा ब्रह्मपुत्री सरस्वतीदेवी मेरी वाणी है। कुन्तीकुमार ! सत् और असत् को भी मैंने अपने भीतर ही प्रविष्ट कर रक्खा है; इसलिये मेरे नाीिा-कमलरूप ब्रह्मलोक में रहने वाले ऋषिगण मुण्े ‘सत्य’ कहते हैं।  धनंजय ! मैं पहले कभी सत्त्व से च्युत नहीं हुआ हूँ। सत्त्व को मुझसे ही उत्पन्न हुआ समझो। मेरा वह पुरातन सत्त्व इस अवतार काल में भी विद्यमान है। सत्त्व के कारण ही मैं पाप से रहित हो निष्काम कर्म में लगा रहता हूँ। भगवत्प्राप्त पुरुषों के सात्त्वज्ञान (पांचरात्रादि वैष्णवतन्त्र) से मेरे स्वरूप का बोध होता है। इन सब कारणों से लोग मझे ‘सात्त्वत’ कहते हैं। पृथापुत्र अर्जुन ! मैं काले लोहे का विशाल फाल बनकर इस पृथ्वी को जोतता हूँ तथा मेरे शरीर का रंग भी काला है, इसलिए मैं ‘कृष्ण’ कहलाता हूँ<ref>  ‘कृष्ण’ नाम की दूसरी व्युत्पत्ति भी इस प्रकार है- कृष् नाम है सत् का और ण कहते हैं आनन्द को। इन दोनो से उपलक्षित सच्चिदानन्दघन श्यामसुन्दर गोलोकविहारी नन्दनन्दन श्रीकृष्ण कहलाते हैं।</ref>। मैंने भूमि को जल के साथ, आकाश को वायु के साथ और वायु को तेज के साथ संयुक्त किया है। इसलिये (पाँचों भूतों को मिलाने में जिनकी शक्ति कभी कुण्ठित नहीं होती, वे भगवान  वैकुण्ठ हैं, इस व्युत्पत्ति के अनुसार) मैं ‘वैकुण्ठ कहलाता हूँ। परम याान्तिमय जो ब्रह्म है, वही परम धर्म कहा गया है। उससे पहले कभी में च्युत नहीं हुआ हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘अच्युत’ कहते हैं। (‘अधः’ का अर्थ है पृथ्वी, ‘अक्ष’ का अर्थ है आकाश और ‘ज’ का अर्थ है इनको धारण करने वाला) पृथ्वी और आकाश दोनों सर्वतोमुखी एवं प्रसिद्ध हैं। उनको अनायास ही धारण करने के कारण लोग मुझे ‘अधोक्षज’ कहते हैं। वेदों के शब्द और अर्थ पर विचार करने वाले वेदवेत्ता विद्वान प्राग्वंश (यज्ञशाला के एक भाग) में बैठकर अधोक्षज नाम से मेरी महिमा का गान करते हैं; इसलिये भी मेरा नाम ‘अधोक्षज’ है। जिसके अनुग्रह से जीव अधोगति में पड़कर क्षीण नहीं होता, उन भगवान  को दूसरे लोग इसी व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अधोक्षज’ कहते हैं।। महर्षि लोग ‘अधोक्षज’ शब्द को पृथक्-पृथक् तीन पदों का एक समुदाय मानते हैं- ‘अ’ का अर्थ है लय-स्थान, ‘धोक्ष’ का अर्थ है पालन-स्थान और ‘ज’ का अर्थ है उत्पत्ति-स्थान। उत्पत्ति, स्थिति और लय के स्थान एकमात्र नारायण ही हैं; अतः उन भगवान  नारायण को छोड़कर संसार में दूसरा कोई ‘अधोक्षज’ नहीं कहला सकता। प्राणियों के प्राणों की पुष्टि करने वाला घृत मेरे स्वरूपभूत अग्निदेव की अर्चिष् अर्थात् ज्वाला को जगाने वाला है, इसलिये शान्तचित्त वेदज्ञ विद्वानों ने मुण्े ‘घृतार्चि’ कहा है। शरीर में तीन धातु विख्यात हैं वात्, पित्त और कफ। वे सब-के-सब कर्मजन्य माने गये हैं। इनके समुदाय को त्रिधातु कहते हैं। जीव इल धातुओं के रहने से जीवन धारण करते हैं और उनके क्षीण हो जाने पर क्षीण हो जाते हैं। इसलिये आयुर्वेद के विद्वान् मुझे ‘त्रिधातु’ कहते हैं।भरतनन्दन ! भगवान  धर्म सम्पूर्ण लोकों में वृष के नाम से विख्यात हैं। वैदिक याब्दार्थ बोधक कोश में वृष का अर्थ धर्म बताया गया है; अतः उत्तम धर्म स्वरूप मुझ वासुदेव को ‘वृष’ समझो।
  
 
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१२:२४, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण

तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय: श्लोक 69-88 का हिन्दी अनुवाद


प्राणियों के सार का नाम है धाम और ऋत का अर्थ है सत्य, ऐसा विद्वानों ने विचार किया है। इसीलिये ब्राह्मणों ने तत्काल मेरा नाम ‘ऋतधाम’ रख दिया था।। मैंने पूर्वकाल में नष्ट होकर रसाजल में गसी हुई पृथ्वी को पुनः वराहरूप धारण करके प्रापत किया था, इसलिये देवताओं ने अपनी वाणी द्वारा ‘गोविन्द’ कहकर मेरी स्तुति की थी (गां विदन्ति इति गोविन्दः- जो पृथ्वी को प्राप्त करे, उसका नाम गोविन्द है)। मेरे ‘शिपिविष्ट’ नाम की व्याख्या इस प्रकार है। रोमहीन प्राणी को शिपि कहते हैं- तथा विष्ट का अर्थ है व्यापक। मैंने निराकार रूप से समस्त जगत् का व्याप्त कर रखा है, इसलिये मुझे ‘शिपिविष्ट’ कहते हैं। यास्कमुनि ने शान्तचित्त होकर अनेक यज्ञों में शिपिविष्ट कहकर मेरी महिमा का गान किया है; अतः मैं इस गुह्यनाम को धारणकरता हूँ। उदारचेता यास्क मुनि ने शिपिविष्ट नाम से मेरी स्तुति करके मेरी ही कृपा से पाताल लोक में नष्ट हुए निरुक्तशास्त्र को पुनः प्रापत किया था। मैंने न पहले कभी जन्म लिया है, न अब जन्म लेता हूँ और न आगे कभी जनम लूँगा। मैं समस्त प्राणियों के शरीर में रहने वाला क्षेत्रज्ञ आतमा हूँ। इसीलिये मेरा नाम ‘अज’ है। मैंने कभी ओछी या अश्लील बात मुँह से नहीं निकाली है। सत्यस्वरूपा ब्रह्मपुत्री सरस्वतीदेवी मेरी वाणी है। कुन्तीकुमार ! सत् और असत् को भी मैंने अपने भीतर ही प्रविष्ट कर रक्खा है; इसलिये मेरे नाीिा-कमलरूप ब्रह्मलोक में रहने वाले ऋषिगण मुण्े ‘सत्य’ कहते हैं। धनंजय ! मैं पहले कभी सत्त्व से च्युत नहीं हुआ हूँ। सत्त्व को मुझसे ही उत्पन्न हुआ समझो। मेरा वह पुरातन सत्त्व इस अवतार काल में भी विद्यमान है। सत्त्व के कारण ही मैं पाप से रहित हो निष्काम कर्म में लगा रहता हूँ। भगवत्प्राप्त पुरुषों के सात्त्वज्ञान (पांचरात्रादि वैष्णवतन्त्र) से मेरे स्वरूप का बोध होता है। इन सब कारणों से लोग मझे ‘सात्त्वत’ कहते हैं। पृथापुत्र अर्जुन ! मैं काले लोहे का विशाल फाल बनकर इस पृथ्वी को जोतता हूँ तथा मेरे शरीर का रंग भी काला है, इसलिए मैं ‘कृष्ण’ कहलाता हूँ[१]। मैंने भूमि को जल के साथ, आकाश को वायु के साथ और वायु को तेज के साथ संयुक्त किया है। इसलिये (पाँचों भूतों को मिलाने में जिनकी शक्ति कभी कुण्ठित नहीं होती, वे भगवान वैकुण्ठ हैं, इस व्युत्पत्ति के अनुसार) मैं ‘वैकुण्ठ कहलाता हूँ। परम याान्तिमय जो ब्रह्म है, वही परम धर्म कहा गया है। उससे पहले कभी में च्युत नहीं हुआ हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘अच्युत’ कहते हैं। (‘अधः’ का अर्थ है पृथ्वी, ‘अक्ष’ का अर्थ है आकाश और ‘ज’ का अर्थ है इनको धारण करने वाला) पृथ्वी और आकाश दोनों सर्वतोमुखी एवं प्रसिद्ध हैं। उनको अनायास ही धारण करने के कारण लोग मुझे ‘अधोक्षज’ कहते हैं। वेदों के शब्द और अर्थ पर विचार करने वाले वेदवेत्ता विद्वान प्राग्वंश (यज्ञशाला के एक भाग) में बैठकर अधोक्षज नाम से मेरी महिमा का गान करते हैं; इसलिये भी मेरा नाम ‘अधोक्षज’ है। जिसके अनुग्रह से जीव अधोगति में पड़कर क्षीण नहीं होता, उन भगवान को दूसरे लोग इसी व्युत्पत्ति के अनुसार ‘अधोक्षज’ कहते हैं।। महर्षि लोग ‘अधोक्षज’ शब्द को पृथक्-पृथक् तीन पदों का एक समुदाय मानते हैं- ‘अ’ का अर्थ है लय-स्थान, ‘धोक्ष’ का अर्थ है पालन-स्थान और ‘ज’ का अर्थ है उत्पत्ति-स्थान। उत्पत्ति, स्थिति और लय के स्थान एकमात्र नारायण ही हैं; अतः उन भगवान नारायण को छोड़कर संसार में दूसरा कोई ‘अधोक्षज’ नहीं कहला सकता। प्राणियों के प्राणों की पुष्टि करने वाला घृत मेरे स्वरूपभूत अग्निदेव की अर्चिष् अर्थात् ज्वाला को जगाने वाला है, इसलिये शान्तचित्त वेदज्ञ विद्वानों ने मुण्े ‘घृतार्चि’ कहा है। शरीर में तीन धातु विख्यात हैं वात्, पित्त और कफ। वे सब-के-सब कर्मजन्य माने गये हैं। इनके समुदाय को त्रिधातु कहते हैं। जीव इल धातुओं के रहने से जीवन धारण करते हैं और उनके क्षीण हो जाने पर क्षीण हो जाते हैं। इसलिये आयुर्वेद के विद्वान् मुझे ‘त्रिधातु’ कहते हैं।भरतनन्दन ! भगवान धर्म सम्पूर्ण लोकों में वृष के नाम से विख्यात हैं। वैदिक याब्दार्थ बोधक कोश में वृष का अर्थ धर्म बताया गया है; अतः उत्तम धर्म स्वरूप मुझ वासुदेव को ‘वृष’ समझो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘कृष्ण’ नाम की दूसरी व्युत्पत्ति भी इस प्रकार है- कृष् नाम है सत् का और ण कहते हैं आनन्द को। इन दोनो से उपलक्षित सच्चिदानन्दघन श्यामसुन्दर गोलोकविहारी नन्दनन्दन श्रीकृष्ण कहलाते हैं।

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