"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 75 श्लोक 1-10" के अवतरणों में अंतर
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श्रीक़ृष्ण का भीमसेन को उतेजित्त करना | श्रीक़ृष्ण का भीमसेन को उतेजित्त करना | ||
− | वैशम्पायन जी कहते हैं – भीमसेन के मुख से यह अभूतपूर्व मृदुतापूर्ण वचन सुनकर महाबाहु | + | वैशम्पायन जी कहते हैं – भीमसेन के मुख से यह अभूतपूर्व मृदुतापूर्ण वचन सुनकर महाबाहु भगवान श्रीक़ृष्ण हंसने-से लगे । जैसे पर्वत में लघुता आ जाए और अग्नि में शीतलता प्रकट हो जाये, उसी प्रकार उनमें यह नम्रता का प्रादुर्भाव हुआ था । यह सोचकर शांड्ग धनुष धारण करने वाले रामानुज श्रीक़ृष्ण अपने पास बैठे हुए वृकोदर भीमसेन को, जो उस समय दया से द्रवित हो रहे थे, अपने वचनों द्वारा उसी प्रकार उत्तेजित करते हुए बोले, मानो वायु अग्नि को उद्दीप्त कर रही हो। |
− | + | श्रीभगवान बोले – भैया भीमसेन ! आज के सिवा और दिन तो तुम हिंसा से ही प्रसन्न होनेवाले क्रूर धृतराष्ट्र पुत्रों को मसल डालने की इच्छा मन में लेकर सदा युद्ध की ही प्रशंसा किया करते थे। परंतप ! ( इन्हीं विचारों में डूबे रहने के कारण ) तुम रात में सोते भी नहीं थे, जागते ही रहते थे । कभी सोना ही पड़ा, तो औंधे-मुँह लेट जाते और सदा घोर, अशांत तथा रोषभरी बातें ही तुम्हारे मुँह से निकलती थीं। भीम ! तुम बारंबार लंबी साँस खींचते हुए अपने ही क्रोध से उसी प्रकार संतप्त होते थे, जैसे आग अपने ही तेज से तपी रहती है । धुएँ से व्याप्त हुई अग्नि कि भाँति तुम्हारे नित्य-निरंतर अशांति छाई रहती थी। भारी बोझ से पीड़ित दुर्बल मनुष्य की भाँति तुम एकांत में बैठकर ज़ोर-ज़ोर से साँस खींचते रहते थे । इसलिए तुम्हें कुछ लोग, जो इस बात को नहीं जानते हैं, पागल मानते हैं। भीम ! जैसे हाथी वृक्षों को जड़-मूलसहित उखाड़कर उन्हें पैरों की ठोकरों से टूक-टूक कर डालता है, उसी प्रकार तुम भी पैरों से पृथ्वी पर आघात करते हुए ज़ोर-ज़ोर से गरजते और चारों ओर दौड़ते थे। पांडुनंदन ! तुम कभी इस जनसमुदाय में प्रसन्नता का अनुभव नहीं करते थे, सदा एकांत में ही बैठकर कालक्षेप करते थे । दिन हो या रात, तुम कभी किसी दूसरे का अभिनंदन नहीं करते थे। कभी सहसा हँस पड़ते और कभी एकांत स्थान में रोते हुए से प्रतीत होते थे और कभी घुटनों पर मस्तक रखकर दीर्घकाल तक नेत्र बंद किए बैठे रहते थे। | |
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१२:१२, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण
पञ्चसप्तितम (75) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
श्रीक़ृष्ण का भीमसेन को उतेजित्त करना
वैशम्पायन जी कहते हैं – भीमसेन के मुख से यह अभूतपूर्व मृदुतापूर्ण वचन सुनकर महाबाहु भगवान श्रीक़ृष्ण हंसने-से लगे । जैसे पर्वत में लघुता आ जाए और अग्नि में शीतलता प्रकट हो जाये, उसी प्रकार उनमें यह नम्रता का प्रादुर्भाव हुआ था । यह सोचकर शांड्ग धनुष धारण करने वाले रामानुज श्रीक़ृष्ण अपने पास बैठे हुए वृकोदर भीमसेन को, जो उस समय दया से द्रवित हो रहे थे, अपने वचनों द्वारा उसी प्रकार उत्तेजित करते हुए बोले, मानो वायु अग्नि को उद्दीप्त कर रही हो।
श्रीभगवान बोले – भैया भीमसेन ! आज के सिवा और दिन तो तुम हिंसा से ही प्रसन्न होनेवाले क्रूर धृतराष्ट्र पुत्रों को मसल डालने की इच्छा मन में लेकर सदा युद्ध की ही प्रशंसा किया करते थे। परंतप ! ( इन्हीं विचारों में डूबे रहने के कारण ) तुम रात में सोते भी नहीं थे, जागते ही रहते थे । कभी सोना ही पड़ा, तो औंधे-मुँह लेट जाते और सदा घोर, अशांत तथा रोषभरी बातें ही तुम्हारे मुँह से निकलती थीं। भीम ! तुम बारंबार लंबी साँस खींचते हुए अपने ही क्रोध से उसी प्रकार संतप्त होते थे, जैसे आग अपने ही तेज से तपी रहती है । धुएँ से व्याप्त हुई अग्नि कि भाँति तुम्हारे नित्य-निरंतर अशांति छाई रहती थी। भारी बोझ से पीड़ित दुर्बल मनुष्य की भाँति तुम एकांत में बैठकर ज़ोर-ज़ोर से साँस खींचते रहते थे । इसलिए तुम्हें कुछ लोग, जो इस बात को नहीं जानते हैं, पागल मानते हैं। भीम ! जैसे हाथी वृक्षों को जड़-मूलसहित उखाड़कर उन्हें पैरों की ठोकरों से टूक-टूक कर डालता है, उसी प्रकार तुम भी पैरों से पृथ्वी पर आघात करते हुए ज़ोर-ज़ोर से गरजते और चारों ओर दौड़ते थे। पांडुनंदन ! तुम कभी इस जनसमुदाय में प्रसन्नता का अनुभव नहीं करते थे, सदा एकांत में ही बैठकर कालक्षेप करते थे । दिन हो या रात, तुम कभी किसी दूसरे का अभिनंदन नहीं करते थे। कभी सहसा हँस पड़ते और कभी एकांत स्थान में रोते हुए से प्रतीत होते थे और कभी घुटनों पर मस्तक रखकर दीर्घकाल तक नेत्र बंद किए बैठे रहते थे।
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