"महाभारत आदि पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-7" के अवतरणों में अंतर

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== चतुर्दशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)==
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==चतुर्दश (14) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: चतुर्दश अध्‍याय: श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: चतुर्दशो अध्‍याय: श्लोक 1- 7 का हिन्दी अनुवाद</div>
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उग्रश्रवाजी कहते हैं—तदनन्तर वे कठारे व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण भार्या की प्राप्ति के लिये इच्छुक होकर पृथ्वी पर सब ओर विचरने लगे। किन्तु उन्हें पत्नी की उपलब्धी नहीं हुई। एक दिन किसी वन में जाकर विप्रवर जरत्कारू ने पितरों के वचन का स्मरण करके कन्या की भिक्षा के लिये तीन बार धीरे- धीरे पुकार लगायी-‘कोई भिक्षा रूप में कन्या दे जाये।' इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिन को लेकर मुनि की सेवा में उपस्थित हो गये और बोले, ‘यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।’ किन्तु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे जैसे नाम वाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया। उन महात्मा जरत्कारू का मन इस बात पर स्थिर हो गया था कि मेरे जैसे नाम वाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसी को पत्नी रूप में ग्रहण करूँ। ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान एवं महान तपस्वी जरत्कारू ने पूछा-‘नागराज ! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिन का क्या नाम है? वासुकि ने कहा—जरत्कारो ! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारू नाम से ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटि प्रदेश वाली कुमारी को पत्नी बनाने के लिये मैंने स्वयं आपकी सेवा में समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ ! यह बहुत पहले से आप ही के लिये सुरक्षित रखी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें।। ऐसा कहकर वासुकि ने वह सुन्दरी कन्या मुनि को पत्नी रूप में प्रदान की। मुनि ने भी शास्त्रीय विधि के अनुसार उसका पणिग्रहण किया।
  
जरत्कारू द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण उग्रश्रवाजी कहते हैं—तदनन्तर वे कठारे व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण भार्या की प्राप्ति के लिये इच्छुक होकर पृथ्वी पर सब ओर विचरने लगे किन्तु उन्हें पत्नी की उपलब्धी नहीं हुई। एक दिन किसी वन में जाकर विप्रवर जरत्कारू ने पितरों के वचन का स्मरण करके कन्या की भिक्षा के लिये तीन बार धीरे धीरे पुकार लगायी-‘कोई भिक्षा रूप में कन्या दे जाय’। इसी समय नागराज वासुकि अपनी वहिन को लेकर मुनि की सेवा में उपस्थित हो गये और बोले, ‘यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।’ किन्तु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे जैसे नाम वाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया। उन महात्मा जरत्कारू का मन इस बात पर स्थिर हो गया था कि मेरे जैसे नाम वाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसी को पत्नी रूप में ग्रहण करूँ। ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान् एवं महान् तपस्वी जरत्कारू ने पूछा-‘नागराज ! सच-सच बताओं, तुम्हारी इस वहिन का क्या नाम है? वासुकि ने कहा—जरत्कारो ! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारू नाम से ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटि प्रदेश वाली कुमारी को पत्नी बनाने के लिये मैंने स्वयं आपकी सेवा में समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ ! यह बहुत पहले से आप ही के लिये सुरक्षित रक्खी गयी है, अतः इसे ग्रहण करे। ऐसा कहकर वासुकि ने वह सुन्दरी कन्या मुनि को पत्नी रूप में प्रदान की। मुनि ने भी शास्त्रीय विधि के अनुसार उसका पाणिग्रहण किया।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 13 श्लोक 20-32|अगला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-11}}
 
 
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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०८:४१, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

चतुर्दश (14) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतुर्दश अध्‍याय: श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—तदनन्तर वे कठारे व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण भार्या की प्राप्ति के लिये इच्छुक होकर पृथ्वी पर सब ओर विचरने लगे। किन्तु उन्हें पत्नी की उपलब्धी नहीं हुई। एक दिन किसी वन में जाकर विप्रवर जरत्कारू ने पितरों के वचन का स्मरण करके कन्या की भिक्षा के लिये तीन बार धीरे- धीरे पुकार लगायी-‘कोई भिक्षा रूप में कन्या दे जाये।' इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिन को लेकर मुनि की सेवा में उपस्थित हो गये और बोले, ‘यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।’ किन्तु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे जैसे नाम वाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया। उन महात्मा जरत्कारू का मन इस बात पर स्थिर हो गया था कि मेरे जैसे नाम वाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसी को पत्नी रूप में ग्रहण करूँ। ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान एवं महान तपस्वी जरत्कारू ने पूछा-‘नागराज ! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिन का क्या नाम है? वासुकि ने कहा—जरत्कारो ! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारू नाम से ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटि प्रदेश वाली कुमारी को पत्नी बनाने के लिये मैंने स्वयं आपकी सेवा में समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ ! यह बहुत पहले से आप ही के लिये सुरक्षित रखी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें।। ऐसा कहकर वासुकि ने वह सुन्दरी कन्या मुनि को पत्नी रूप में प्रदान की। मुनि ने भी शास्त्रीय विधि के अनुसार उसका पणिग्रहण किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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