"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 142 श्लोक 53-59" के अवतरणों में अंतर
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− | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 53-59 का हिन्दी अनुवाद </div> | |
− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | ||
देवि! जो ब्राह्मण नियमपूर्वक रहकर यथोचित रीति से वनवास-व्रत की दीक्षा ले अपने मन को परमात्मचिन्तन में लगाकर ममताशून्य और धर्म का अभिलाषी होकर बारह वर्षों तक इस मनोगत दीक्षा का पालन करके अरणी सहित अग्नि को वृक्ष की डाली में बाँधकर अर्थात् अग्नि का परित्याग करके अनावृत भाव से यात्रा करता है, सदा वीर मार्ग से चलता है, वीरासन पर बैठता है और वीर की भाँति खड़ा होता है, वह वीरगति को प्राप्त होता है।। वह इन्द्रलोक में जाकर सदा सम्पूर्ण कामनाओं से समपन्न होता है। उसके ऊपर दिव्य पुष्पों की वर्षा होती है तथा वह दिव्य चन्दन से विभूषित होता है। वह धर्मात्मा देवलोक में देवताओं के साथ सुख-पूर्वक निवास करता है और निन्तर वीरलोक में रहकर वीरों के साथ संयुक्त होता है। जो सब कुछ त्याग कर वनवास की दीक्षा ले सत्वगुण में स्थित नियमपरायण एवं पवित्र हो वीरपथ का आश्रय लेता है, उसे सनातन लोक प्राप्त होते हैं। वह इन्द्रलोक में जाकर नीरोग और दिव्य शोभा से सम्पन्न हो आनन्द भोगता है और इच्छानुसार चलने वाले विमान के द्वारा स्वच्छन्द विचरता रहता है। | देवि! जो ब्राह्मण नियमपूर्वक रहकर यथोचित रीति से वनवास-व्रत की दीक्षा ले अपने मन को परमात्मचिन्तन में लगाकर ममताशून्य और धर्म का अभिलाषी होकर बारह वर्षों तक इस मनोगत दीक्षा का पालन करके अरणी सहित अग्नि को वृक्ष की डाली में बाँधकर अर्थात् अग्नि का परित्याग करके अनावृत भाव से यात्रा करता है, सदा वीर मार्ग से चलता है, वीरासन पर बैठता है और वीर की भाँति खड़ा होता है, वह वीरगति को प्राप्त होता है।। वह इन्द्रलोक में जाकर सदा सम्पूर्ण कामनाओं से समपन्न होता है। उसके ऊपर दिव्य पुष्पों की वर्षा होती है तथा वह दिव्य चन्दन से विभूषित होता है। वह धर्मात्मा देवलोक में देवताओं के साथ सुख-पूर्वक निवास करता है और निन्तर वीरलोक में रहकर वीरों के साथ संयुक्त होता है। जो सब कुछ त्याग कर वनवास की दीक्षा ले सत्वगुण में स्थित नियमपरायण एवं पवित्र हो वीरपथ का आश्रय लेता है, उसे सनातन लोक प्राप्त होते हैं। वह इन्द्रलोक में जाकर नीरोग और दिव्य शोभा से सम्पन्न हो आनन्द भोगता है और इच्छानुसार चलने वाले विमान के द्वारा स्वच्छन्द विचरता रहता है। | ||
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें उमामहेश्वर संवादविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें उमामहेश्वर संवादविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
− | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 142 श्लोक 35-52|अगला=महाभारत | + | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 142 श्लोक 35-52|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 143 श्लोक 1-18}} |
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
१२:३६, २५ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
देवि! जो ब्राह्मण नियमपूर्वक रहकर यथोचित रीति से वनवास-व्रत की दीक्षा ले अपने मन को परमात्मचिन्तन में लगाकर ममताशून्य और धर्म का अभिलाषी होकर बारह वर्षों तक इस मनोगत दीक्षा का पालन करके अरणी सहित अग्नि को वृक्ष की डाली में बाँधकर अर्थात् अग्नि का परित्याग करके अनावृत भाव से यात्रा करता है, सदा वीर मार्ग से चलता है, वीरासन पर बैठता है और वीर की भाँति खड़ा होता है, वह वीरगति को प्राप्त होता है।। वह इन्द्रलोक में जाकर सदा सम्पूर्ण कामनाओं से समपन्न होता है। उसके ऊपर दिव्य पुष्पों की वर्षा होती है तथा वह दिव्य चन्दन से विभूषित होता है। वह धर्मात्मा देवलोक में देवताओं के साथ सुख-पूर्वक निवास करता है और निन्तर वीरलोक में रहकर वीरों के साथ संयुक्त होता है। जो सब कुछ त्याग कर वनवास की दीक्षा ले सत्वगुण में स्थित नियमपरायण एवं पवित्र हो वीरपथ का आश्रय लेता है, उसे सनातन लोक प्राप्त होते हैं। वह इन्द्रलोक में जाकर नीरोग और दिव्य शोभा से सम्पन्न हो आनन्द भोगता है और इच्छानुसार चलने वाले विमान के द्वारा स्वच्छन्द विचरता रहता है।
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