"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 134 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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== एक सौ चौंतीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==चतुस्त्रिंशदधिकशततम (134) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 22 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
  
 
विदुला का अपने पुत्र को युद्ध के लिए उत्साहित करना
 
विदुला का अपने पुत्र को युद्ध के लिए उत्साहित करना
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विदुला बोली – संजय ! यदि तू इस दशा में पौरुष को छोड़ देने की इच्छा करता है तो शीघ्र ही नीच पुरुषों के मार्ग पर जा पहुंचेगा। जो क्षत्रिय अपने जीवन के लोभ से यथाशक्ति पराक्रम प्रकट करके अपने तेज का परिचय नहीं देता है, उसे सब लोग चोर मानते हैं। जैसे मरन्नासन पुरुष को कोई भी दवा लागू नहीं होती, उसी प्रकार ये युक्तियुक्त, गुणकारी और सार्थक वचन भी तेरे हृदय तक पहुँच नहीं पाते हैं ( यह कितने दु:ख की बात है )। देख, सिंधुराज की प्रजा उससे संतुष्ट नहीं है, तथापि तेरी दुर्बलता के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो उदासीन बैठी हुई है और सिन्धुराज पर विपत्तियों के आने की बाट जोह रही है। दूसरे राजा भी तेरा पुरुषार्थ देखकर इधर-उधर से विशेष चेष्टापूर्वक सहायक साधनों की वृद्धि करके सिन्धुराज के शत्रु हो सकते हैं। तू उन सबके साथ मैत्री करके यथासमय अपने शत्रु सिन्धुराज पर विपत्ति आने की प्रतीक्षा करता हुआ पर्वतों की दुर्गम गुफा में विचारता रह, क्योंकि यह सिन्धुराज कोई अजर, अमर तो है नहीं।   
 
विदुला बोली – संजय ! यदि तू इस दशा में पौरुष को छोड़ देने की इच्छा करता है तो शीघ्र ही नीच पुरुषों के मार्ग पर जा पहुंचेगा। जो क्षत्रिय अपने जीवन के लोभ से यथाशक्ति पराक्रम प्रकट करके अपने तेज का परिचय नहीं देता है, उसे सब लोग चोर मानते हैं। जैसे मरन्नासन पुरुष को कोई भी दवा लागू नहीं होती, उसी प्रकार ये युक्तियुक्त, गुणकारी और सार्थक वचन भी तेरे हृदय तक पहुँच नहीं पाते हैं ( यह कितने दु:ख की बात है )। देख, सिंधुराज की प्रजा उससे संतुष्ट नहीं है, तथापि तेरी दुर्बलता के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो उदासीन बैठी हुई है और सिन्धुराज पर विपत्तियों के आने की बाट जोह रही है। दूसरे राजा भी तेरा पुरुषार्थ देखकर इधर-उधर से विशेष चेष्टापूर्वक सहायक साधनों की वृद्धि करके सिन्धुराज के शत्रु हो सकते हैं। तू उन सबके साथ मैत्री करके यथासमय अपने शत्रु सिन्धुराज पर विपत्ति आने की प्रतीक्षा करता हुआ पर्वतों की दुर्गम गुफा में विचारता रह, क्योंकि यह सिन्धुराज कोई अजर, अमर तो है नहीं।   
  
तेरा नाम तो संजय है, परंतु तुझ में इस नाम के अनुसार गुण मैं नहीं देख रहा हूँ । बेटा ! युद्ध में विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर, व्यर्थ संजय नाम न धारण कर। जब तू बालक था, उस समय एक उत्तम दृष्टिवाले, परम बुद्धिमानी ब्राह्मण ने तेरे विषय में कहा था कि ‘यह महान् संकट में पड़कर भी पुन: वृद्धि को प्राप्त होगा’। उस ब्राह्मण कि बाट को याद करके मैं यह आशा करती हूँ कि तेरी विजय होगी । तात ! इसलिए मैं बार-बार तुझसे कहती हूँ और कहती रहूँगी। जिसके प्रयोजन की सिद्धि होने पर उससे संबंध रखने वाले दूसरे लोग भी संतुष्ट एवं उन्नति को प्राप्त होते हैं, नीति मार्ग पर चलकर अर्थसिद्धि के लिए प्रयत्न करने वाले उस पुरुष को निश्चय ही अपने अभीष्ट की सिद्धि होती है। संजय ! युद्ध से हमारे पूर्वजों का अथवा मेरा कोई लाभ हो या हानि, युद्ध करना क्षत्रियों का धर्म है, ऐसा समझकर उसी में मन लगा, युद्ध बंद न कर। जहां आज के लिए और कल सबेरे के लिए भी भोजन दिखाई नहीं देता, उससे बढ़कर महान् पापपूर्ण कोई दूसरी अवस्था नहीं है, ऐसा शंबरासुर का कथन है। जिसका नाम दरिद्रता है, उसे पति और पुत्र के वध से भी अधिक दु:खदायक बताया गया है । दरिद्रता मृत्यु का समानार्थक शब्द है। मैं उच्चकुल में उत्पन्न हो हंसी की भाँति एक सरोवर से दूसरे सरोवर में आई और इस राज्य कि स्वामिनी, समस्त कल्याणमय साधनों से सम्पन्न तथा पतिदेव के परम आदर की पात्र हुई। पूर्वकाल में मेरे सुहृदों ने जब मुझे सगे संबंधियों के बीच बहुमूल्य हार एवं आभूषणों से विभूषित तथा परम सुंदर स्वच्छ वस्त्रों से आच्छादित देखा, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। संजय ! अब जिस समय तू मुझे और अपनी पत्नी को चिंता के कारण अत्यंत दुर्बल देखेगा, उस समय तुझे जीवित रहने की इच्छा नहीं होगी। जब सेवा का काम करनेवाले दास, भरण-पोषण पानेवाले कुटुंबी, आचार्य, ऋत्विक और पुरोहित जीविका के अभाव में हमें छोड़कर जाने लगेंगे, उस समय उन्हें देखकर तुझे जीवन-धारण का कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देगा। यदि पहले के समान आज भी मैं तेरे यश कि वृद्धि करनेवाले प्रशंसनीय कर्मों को नहीं देखूँगी तो मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी ? यदि किसी ब्राह्मण के माँगने पर मैं उसकी अभीष्ट वस्तु के लिए ‘नाहीं’ कह दूँगी तो उसी समय मेरा हृदय विदीर्ण हो जाएगा । आजतक मैंने या मेरे पतिदेव ने किसी ब्राह्मण से नाहीं नहीं की है। हम सदा लोगों के आश्रयदाता रहे हैं, दूसरों के आश्रित कभी नहीं रहे, परंतु अब यदि दूसरे का आश्रय लेकर जीवन धारण करना पड़े तो मैं ऐसे जीवन का परित्याग ही कर दूँगी । बेटा ! अपार समुद्र में डूबते हुए हम लोगों को तू पार लगानेवाला हो । नौका विहीन अगाध जलराशि (महान संकट) में तू हमारे लिए नौका हो जा । हमारे लिए कोई स्थान नहीं रह गया है, तू स्थान बन जा और हम मृतप्राय हो रहे हैं, तू हमें जीवनदान कर। यदि तुझे जीवन के प्रति अधिक आसक्ति न हो तो तू अपने सभी शत्रुओं को परास्त कर सकता है और यदि इस प्रकार विषादग्रस्त एवं हतोत्साह होकर ऐसी कायरों की सी वृत्ति अपना रहा है तो तुझे इस पापपूर्ण जीविका को त्याग देना चाहिए।
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तेरा नाम तो संजय है, परंतु तुझ में इस नाम के अनुसार गुण मैं नहीं देख रहा हूँ । बेटा ! युद्ध में विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर, व्यर्थ संजय नाम न धारण कर। जब तू बालक था, उस समय एक उत्तम दृष्टिवाले, परम बुद्धिमानी ब्राह्मण ने तेरे विषय में कहा था कि ‘यह महान् संकट में पड़कर भी पुन: वृद्धि को प्राप्त होगा’। उस ब्राह्मण कि बाट को याद करके मैं यह आशा करती हूँ कि तेरी विजय होगी । तात ! इसलिए मैं बार-बार तुझसे कहती हूँ और कहती रहूँगी। जिसके प्रयोजन की सिद्धि होने पर उससे संबंध रखने वाले दूसरे लोग भी संतुष्ट एवं उन्नति को प्राप्त होते हैं, नीति मार्ग पर चलकर अर्थसिद्धि के लिए प्रयत्न करने वाले उस पुरुष को निश्चय ही अपने अभीष्ट की सिद्धि होती है। संजय ! युद्ध से हमारे पूर्वजों का अथवा मेरा कोई लाभ हो या हानि, युद्ध करना क्षत्रियों का धर्म है, ऐसा समझकर उसी में मन लगा, युद्ध बंद न कर। जहां आज के लिए और कल सबेरे के लिए भी भोजन दिखाई नहीं देता, उससे बढ़कर महान् पापपूर्ण कोई दूसरी अवस्था नहीं है, ऐसा शंबरासुर का कथन है। जिसका नाम दरिद्रता है, उसे पति और पुत्र के वध से भी अधिक दु:खदायक बताया गया है । दरिद्रता मृत्यु का समानार्थक शब्द है। मैं उच्चकुल में उत्पन्न हो हंसी की भाँति एक सरोवर से दूसरे सरोवर में आई और इस राज्य कि स्वामिनी, समस्त कल्याणमय साधनों से सम्पन्न तथा पतिदेव के परम आदर की पात्र हुई। पूर्वकाल में मेरे सुहृदों ने जब मुझे सगे संबंधियों के बीच बहुमूल्य हार एवं आभूषणों से विभूषित तथा परम सुंदर स्वच्छ वस्त्रों से आच्छादित देखा, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। संजय ! अब जिस समय तू मुझे और अपनी पत्नी को चिंता के कारण अत्यंत दुर्बल देखेगा, उस समय तुझे जीवित रहने की इच्छा नहीं होगी। जब सेवा का काम करनेवाले दास, भरण-पोषण पानेवाले कुटुंबी, आचार्य, ऋत्विक और पुरोहित जीविका के अभाव में हमें छोड़कर जाने लगेंगे, उस समय उन्हें देखकर तुझे जीवन-धारण का कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देगा।  
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 133 श्लोक 23- 45|अगला= महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 134 श्लोक 23- 41}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 30-45|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 134 श्लोक 18-33}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अादिपर्व]]
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१५:११, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

चतुस्त्रिंशदधिकशततम (134) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

विदुला का अपने पुत्र को युद्ध के लिए उत्साहित करना

विदुला बोली – संजय ! यदि तू इस दशा में पौरुष को छोड़ देने की इच्छा करता है तो शीघ्र ही नीच पुरुषों के मार्ग पर जा पहुंचेगा। जो क्षत्रिय अपने जीवन के लोभ से यथाशक्ति पराक्रम प्रकट करके अपने तेज का परिचय नहीं देता है, उसे सब लोग चोर मानते हैं। जैसे मरन्नासन पुरुष को कोई भी दवा लागू नहीं होती, उसी प्रकार ये युक्तियुक्त, गुणकारी और सार्थक वचन भी तेरे हृदय तक पहुँच नहीं पाते हैं ( यह कितने दु:ख की बात है )। देख, सिंधुराज की प्रजा उससे संतुष्ट नहीं है, तथापि तेरी दुर्बलता के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो उदासीन बैठी हुई है और सिन्धुराज पर विपत्तियों के आने की बाट जोह रही है। दूसरे राजा भी तेरा पुरुषार्थ देखकर इधर-उधर से विशेष चेष्टापूर्वक सहायक साधनों की वृद्धि करके सिन्धुराज के शत्रु हो सकते हैं। तू उन सबके साथ मैत्री करके यथासमय अपने शत्रु सिन्धुराज पर विपत्ति आने की प्रतीक्षा करता हुआ पर्वतों की दुर्गम गुफा में विचारता रह, क्योंकि यह सिन्धुराज कोई अजर, अमर तो है नहीं।

तेरा नाम तो संजय है, परंतु तुझ में इस नाम के अनुसार गुण मैं नहीं देख रहा हूँ । बेटा ! युद्ध में विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर, व्यर्थ संजय नाम न धारण कर। जब तू बालक था, उस समय एक उत्तम दृष्टिवाले, परम बुद्धिमानी ब्राह्मण ने तेरे विषय में कहा था कि ‘यह महान् संकट में पड़कर भी पुन: वृद्धि को प्राप्त होगा’। उस ब्राह्मण कि बाट को याद करके मैं यह आशा करती हूँ कि तेरी विजय होगी । तात ! इसलिए मैं बार-बार तुझसे कहती हूँ और कहती रहूँगी। जिसके प्रयोजन की सिद्धि होने पर उससे संबंध रखने वाले दूसरे लोग भी संतुष्ट एवं उन्नति को प्राप्त होते हैं, नीति मार्ग पर चलकर अर्थसिद्धि के लिए प्रयत्न करने वाले उस पुरुष को निश्चय ही अपने अभीष्ट की सिद्धि होती है। संजय ! युद्ध से हमारे पूर्वजों का अथवा मेरा कोई लाभ हो या हानि, युद्ध करना क्षत्रियों का धर्म है, ऐसा समझकर उसी में मन लगा, युद्ध बंद न कर। जहां आज के लिए और कल सबेरे के लिए भी भोजन दिखाई नहीं देता, उससे बढ़कर महान् पापपूर्ण कोई दूसरी अवस्था नहीं है, ऐसा शंबरासुर का कथन है। जिसका नाम दरिद्रता है, उसे पति और पुत्र के वध से भी अधिक दु:खदायक बताया गया है । दरिद्रता मृत्यु का समानार्थक शब्द है। मैं उच्चकुल में उत्पन्न हो हंसी की भाँति एक सरोवर से दूसरे सरोवर में आई और इस राज्य कि स्वामिनी, समस्त कल्याणमय साधनों से सम्पन्न तथा पतिदेव के परम आदर की पात्र हुई। पूर्वकाल में मेरे सुहृदों ने जब मुझे सगे संबंधियों के बीच बहुमूल्य हार एवं आभूषणों से विभूषित तथा परम सुंदर स्वच्छ वस्त्रों से आच्छादित देखा, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। संजय ! अब जिस समय तू मुझे और अपनी पत्नी को चिंता के कारण अत्यंत दुर्बल देखेगा, उस समय तुझे जीवित रहने की इच्छा नहीं होगी। जब सेवा का काम करनेवाले दास, भरण-पोषण पानेवाले कुटुंबी, आचार्य, ऋत्विक और पुरोहित जीविका के अभाव में हमें छोड़कर जाने लगेंगे, उस समय उन्हें देखकर तुझे जीवन-धारण का कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देगा।


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