"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 15-27" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  चतुर्थ अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  चतुर्थ अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद </div>

१४:१८, २३ जुलाई २०१५ का अवतरण

दशम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद

‘मेरी प्यारी बहिन और बहनोई जी! हाय-हाय, मैं बड़ा पापी हूँ। राक्षस जैसे अपने ही बच्चों को मार डालता है वैसे ही मैंने तुम्हारे बहुत-से लड़के मार डाले। इस बात का मुझे बड़ा खेद है । मैं इतना दुष्ट हूँ कि करुणा का तो मुझमें लेश भी नहीं है। मैंने अपने भाई-बन्धु और हितैषियों तक का त्याग कर दिया। पता नहीं, अब मुझे किस नरक में जाना पड़ेगा। वास्तव में तो मैं बम्ह्घाती के सामान जीवित होने पर भी मुर्दा ही हूँ । केवल मनुष्य ही झूठ नहीं बोलते, विधाता भी झूठ बोलते हैं। उसी पर विश्वास करके मैंने अपनी बहिन के बच्चे मार डाले। ओह! मैं कितना पापी हूँ । तुम दोनों महात्मा हो। अपने पुत्रों के लिए शोक मत करो। उन्हें तो कर्म का ही फल मिला है। सभी प्राणी प्रारब्ध के अधीन हैं। इसी से वे सदा-सर्वदा एक साथ नहीं रह सकते । जैसे मिट्टी के बने हुए पदार्थ बनते और बिगड़ते रहते हैं, परन्तु मिट्टी में कोई अदल-बदल नहीं होती—वैसे ही शरीर का तो बनना-बिगड़ना होता ही रहता है; परन्तु आत्मा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

जो लोग तत्व को नहीं जानते, वे इस अनात्मा शरीर को ही आत्मा मान बैठते हैं। यही उलटी बुद्धि अथवा अज्ञान है। इसी के कारण जन्म और मृत्यु होते हैं। और जब तक यह अज्ञान नहीं मिटता, तबतक दुःख-सुख रूप संसार से छुटकारा नहीं मिलता । मेरी प्यारी बहिन! यद्यपि मैंने तुम्हारे पुत्रों को मर डाला है, फिर भी तुम उनके लिये शोक न करो। क्योंकि सभी प्राणियों को विवश होकर अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है । अपने स्वरुप को जानने के कारण जीव जबतक यह मानता रहता है कि ‘मैं मारने वाला हूँ, या मारा जाता हूँ’, तबतक शरीर के जन्म और मृत्यु का अभिमान करनेवाला वह अज्ञानी बाध्य और बाधक-भाव को प्राप्त होता है। अर्थात् यह दूसरों को दुःख देता है और स्वयं दुःख भोगता है । मेरी यह दुष्टता तुम दोनों क्षमा करो; क्योंकि तुम बड़े ही साधुस्वभाव और दीनों के रक्षक हो।’ ऐसा कहकर कंस ने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजी के चरण पकड़ लिये। उसकी आँखों से आँसू बह-बहकर मुँहतक आ रहे थे । इसके बाद उसने योगमाया के वचनों पर विश्वास करके देवकी और वसुदेव को कैद से छोड़ दिया और वह तरह-तरह से उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा । जब देवकीजी ने देखा कि भाई कंस को पश्चाताप हो रहा है, तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। वे उसके पहले अपराधों को भूल गयीं और वसुदेवजी ने हँसकर कंस से कहा । ‘मनस्वी कंस! आप जो कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है। जीव अज्ञान के कारण ही शरीर आदि को ‘मैं’ मान बैठते हैं। इसी से अपने पराये का भेद हो जाता है । और यह भेददृष्टि हो जाने पर तो वे शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह और मद से अन्धे हो जाते हैं। फिर तो उन्हें इस बात का पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान् ही एक भाव से दूसरे भाव का, एक वस्तु से दूसरी वस्तु का नाश करा रहें हैं’।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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