"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 31-39" के अवतरणों में अंतर

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इकहत्तरवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: इकहत्तरवाँ अध्याय: श्लोक 25-41 का हिन्दी अनुवाद

‘उन भवनो में भक्ष्य और भोज्य पदार्थों के पर्वत खडे थे। वस्त्रो और शैय्याओं के ढेर लगे थे तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देने वाले बहुत-से वृक्ष उन गृहों की सीमा के भीतर लहालहा रहे थे। ‘उन दिव्य लोकों में बहुत-सी नदियां, गलियां, सभाभवन, बावडियां, तालाब और जोतकर तैयार खडे़ हुए घोषयुक्त सहस्त्रों रथ मैंने सब और देखे थे। ‘मैंने दूध बहाने वाली नदियां, पर्वत, घी और निर्मल जल भी देखे तथा यमराज की अनुमति से और भी बहुत-से पहले के न देखे हुए प्रदेशों का दर्शन किया। ‘उन सब को देखकर मैंने प्रभावशाली पुरातन देवता धर्मराज से कहा- ‘प्रभो। ये जो घी और दूध की नदियां बहती रहती हैं, जिनका स्त्रोत कभी सूखता नहीं है, किनके उपभोग में आती हैं- इन्हें किन का भोजन नियत किया गया है?’‘यमराज ने कहा- ब्रह्मन। तुम इन नदियों को उन श्रेष्ठ पुरूषों का भोजन समझो, जो गौरस दान करने वाले हैं। जो गोदान में तत्पर हैं, उन पुण्यात्माओं के दूसरे भी सनातन लोग विद्यमान हैं, जिनके दुःख-शोक से रहित पुण्यात्मा भरे पड़े हैं। ‘‘विप्रवर। केवल इनका दान मात्र ही प्रषस्त नहीं है; सुपात्र ब्राह्माण, उत्तम समय, विषिष्ठ गौ तथा दान की सर्वोत्तम विधि- इन सब बातों को जानकर ही गोदान करना चाहिये। गौओं का आपस में जो तारतम्य है, उसे जानना बहुत कठिन काम है और अग्नि एवं सूर्य के समान तेजस्वी पात्र को पहचानना भी सरल नहीं है । ‘‘जो ब्राह्माण वेदों के स्वाध्याय से सम्पन्न, अत्यन्त तपस्वी तथा यज्ञ के अनुष्ठान में लगा हुआ हो, वही इन गौओं के दान का सर्वोत्तम पात्र है। इनके सिवा जो ब्राह्माण कृच्छ्र व्रत से मुक्त हुए हों और परिबार की पुष्टि के लिये गोदान के प्रार्थी होकर आये हों, वे भी दान के उत्तम पात्र हैं। इन सुयोग्य पात्रों को निमित्त बनाकर दान में दी गयी श्रेष्ठ गौऐं उत्तम मानी गयी हैं।‘‘ तीन रात तक उपवास पूर्वक केवल जल पीकर धरती पर शयन करें। तत्पश्‍चात् खिला-पिलाकर तृप्त की हुई गौओं का भोजन आदि से संतुष्ट किये हुए ब्राह्माणों को दान करें। वे गौऐं बछड़ों के साथ रहकर प्रसन्न हों, सुन्दर बच्चे देने वाली हों तथा अन्यान्य आवश्‍यक सामग्रियों से युक्त हों। ऐसी गौओं का दान करके तीन दिनों तक केवल गौरस का आहार करके रहना चाहिये। ‘‘उत्तम शील- स्वभाव वाली, भले बछड़े वाली और भाग कर न जाने वाली दुधारू गाय का कांस्य के दुग्ध पात्र सहित दान करके उस गौ के शरीर में जितने रोये होते हैं उतने वर्षों तक दाता स्वर्गलोक का सुख भोगता है। ‘‘इसी प्रकार जो शिक्षा लेकर काबू में किये हुए, बोझ ढोने में समर्थ, बलवान, जवान, कृषक- समुदाय की जीविका चलाने योग्य, पराक्रमी और विशाल डील-डौल वाले बैल का ब्राह्माणों को दान देता है, वह दुधारू गाय का दान करने वाले के तुल्य ही उत्तम लोकों का उपभोग करता है। जो गौओं के प्रति क्षमाशील, उनकी रक्षा करने में समर्थ, कृतज्ञ और आजीविका से रहित है, ऐसे ब्राह्माण को गोदान का उत्तम पात्र बताया गया है। जो वूढा हो, रोगी होने के कारण पथ्य-भोजन चाहता हो, दुर्भिक्ष आदि के कारण घवराया हो, किसी महान यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला हो या जिसके लिये खेती की आवश्‍यकता पड़ी हो, होम के लिये हविष्य प्राप्त करने की इच्छा हो अथवा घर में स्त्री के बच्चा पैदा होने वाला हो अथवा गुरू के लिये दक्षणा देनी हो अथवा बालक की पुष्टि के लिये गौ दुग्ध की आवश्‍यकता आ पड़ी हो, ऐसे व्यक्तियों को ऐसे अवसरों पर गोदान के लिये सामान्य देश-काल माना गया है। ( ऐसे समय में देश-काल का विचार नहीं करना चाहिये)। जिन गौओं का विशेष भेद जाना हुआ हो, जो खरीद कर लायी गयी हों अथवा ज्ञान के पुरस्कार से प्राप्त हुई हों अथवा प्राणियों के अदला-बदली से खरीदी गयी हों या जीत कर लायी गयी हों अथवा दहेज में मिली हों, ऐसी गौऐं दान के लिये उत्तम मानी गयी हैं’’।।नाचीकेत कहता है- वैवस्वत यम की बात सुनकर मैंने पुनः उनसे पूछा- ‘भगवन। यदि अभाव वश गोदान न किया जा सके तो गोदान करने वालों को ही मिलने वाले लोकों में मनुष्य कैसे जा सकता है?’तदनन्तर बुद्विमान यमराज ने गोदान सम्बन्धी गति तथा गोदान के समान फल देने वाले दान का वर्णन किया, जिसके अनुसार बिना गाय के भी लोग गोदान करने वाले हो सकते हैं? ‘जो गौओं के अभाव में संयम-नियम से युक्त हों घृत धेनु को दान करता है, उसके लिये ये घृत वाहिनी नदियां वत्सला गौओं की भांति घृत बहाती हैं। ‘घी के अभाव में जो व्रत-नियम से युक्त हो तिलमयी धेनु को दान करता है, वह उस धेनु के द्वारा संकट से उद्वार पाकर दूध की नदी में आनन्दित होता है। ‘तिल के अभाव में जो व्रतशील एवं नियमनिष्ट होकर जलमयी धेनु का दान करता है, वह अभीष्ट वस्तुओं को बहाने वाली इस शीतल नदी के निकट रहकर सुख भोगता है’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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