"महाभारत वन पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-25" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">धृतराष्ट्र संजय को भेजकर वन से बुलवाना और उनसे क्षमा-प्रार्थना</div>
 
  
'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''-राजन् ! जब [[विदुर|विदुरजी]] पाण्डवों के आश्रम पर चले गये तब महाबु‍द्द्धिमान् राजा [[धृतराष्ट्र]]-को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने सोचा,विदुर संधि और विग्रह आदि नीति को अच्छी तरह जानते हैं, जिसके कारण उनका बहुत बड़ा प्रभाव है। वे पाण्डवों के पक्ष में हो गये तो भविष्य में उनका महान् अभ्युदय होगा। विदुर का स्मरण करके वे मोहित-से हो गये और सभा-भवन के द्वार आकर सब राजाओं के देखते-देखते अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर होश में आने पर वे पृथ्वी से उठ खडे. हुए और समीप आये हुए संजय से इस प्रकार बोले-संजय ! विदुर मेरे भाई और सुह्रद् हैं। वे साक्षात् दूसरे धर्म के समान हैं। उनकी याद आने से मेरा ह्रदय अत्यन्त विदीर्ण-सा होने लगा है। ‘तुम मेरे धर्मज्ञ भ्राता विदुर को शीघ्र यहाँ बुला लाओ।‘ ऐसा कहते हुए राजा धृतराष्ट्र दीन भाव से फूट-फूटकर रोने लगे। महाराजा धृतराष्ट्र विदुरजी की याद आने से मोहित पश्चाताप से खिन्न हो उठे और भ्रातृस्नेह वश संजय पुनः इस प्रकार बोले-संजय ! जाओ, मेरे भाई विदुर जी का पता लगाओ। मुझ पापी ने क्रोधवश उन्हें निकाल दिया। वे जीवित तो हैं न। अपरिमित बुद्धि वाले मेरे उन विद्वान भाई ने पहले कभी कोई छोटा-सा भी अपराध नहीं किया है। बुद्धिमान संजय ! मुझसे परम मेधावी विदुर का बड़ा अपराध हुआ। तुम जाकर उन्हें ले आओ नहीं तो मैं प्राण त्याग दूँगा। राजा का यह वचन सुनकर संजय ने उनका आंदर करते हुए बहुत अच्छा कहकर काम्यकवन को प्रस्थान किया। जहाँ पाण्डव रहते थे उस वन में शीघ्र पहुँचकर संजय ने देखा राजा युधिष्ठिर मृग चर्म धारण करके विदुरजी ने तथा सहस्त्रों ब्राह्मणों के साथ बैठे हुए हैं और देवताओं घिरे हुए इन्द्र की भाँति अपने भाइयों से सुरक्षित हैं। [[युधिष्ठिर]] के पास पहुँचकर संजय ने उनका सम्मान किया। फिर [[भीम,]] [[अर्जुन]] और [[नकुल]]-[[सहदेव]] ने [[संजय]] का यथोचित सत्कार किया। राजा युधिष्ठिर के कुशल प्रश्न करने पश्चात् जब संजय सुख पूर्वक बैठ गया, तब अपने आने का कारण  बताते हुए उसने इस प्रकार कहा।
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धृतराष्ट्र संजय को भेजकर वन से बुलवाना और उनसे क्षमा-प्रार्थना
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'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''-राजन ! जब [[विदुर|विदुरजी]] पाण्डवों के आश्रम पर चले गये तब महाबुद्धिमान राजा [[धृतराष्ट्र]]-को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने सोचा,विदुर संधि और विग्रह आदि नीति को अच्छी तरह जानते हैं, जिसके कारण उनका बहुत बड़ा प्रभाव है। वे पाण्डवों के पक्ष में हो गये तो भविष्य में उनका महान अभ्युदय होगा। विदुर का स्मरण करके वे मोहित-से हो गये और सभाभवन के द्वार पर आकर सब राजाओं के देखते-देखते अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर होश में आने पर वे पृथ्वी से उठ खड़े  हुए और समीप आये हुए संजय से इस प्रकार बोले- संजय ! विदुर मेरे भाई और सुह्रद् हैं। वे साक्षात दूसरे धर्म के समान हैं। उनकी याद आने से मेरा ह्रदय अत्यन्त विदीर्ण-सा होने लगा है। ‘तुम मेरे धर्मज्ञ भ्राता विदुर को शीघ्र यहाँ बुला लाओ।‘ ऐसा कहते हुए राजा धृतराष्ट्र दीन भाव से फूट-फूटकर रोने लगे। महाराजा धृतराष्ट्र विदुरजी की याद आने से मोहित पश्चाताप से खिन्न हो उठे और भ्रातृस्नेहवश संजय से पुनः इस प्रकार बोले- संजय ! जाओ, मेरे भाई विदुरजी का पता लगाओ। मुझ पापी ने क्रोधवश उन्हें निकाल दिया। वे जीवित तो हैं न।? अपरिमित बुद्धि वाले मेरे उन विद्वान भाई ने पहले कभी कोई छोटा-सा भी अपराध नहीं किया है। बुद्धिमान संजय ! मुझसे परम मेधावी विदुर का बड़ा अपराध हुआ। तुम जाकर उन्हें ले आओ नहीं तो मैं प्राण त्याग दूँगा। राजा का यह वचन सुनकर संजय ने उनका आदर करते हुए 'बहुत अच्छा' कहकर काम्यकवन को प्रस्थान किया। जहाँ पाण्डव रहते थे उस वन में शीघ्र पहुँचकर संजय ने देखा राजा युधिष्ठिर मृगचर्म धारण करके विदुरजी तथा सहस्त्रों, ब्राह्मणों के साथ बैठे हुए हैं और देवताओं से घिरे हुए इन्द्र की भाँति अपने भाइयों से सुरक्षित हैं। [[युधिष्ठिर]] के पास पहुँचकर संजय ने उनका सम्मान किया। फिर [[भीम,]] [[अर्जुन]] और [[नकुल]]-[[सहदेव]] ने [[संजय]] का यथोचित सत्कार किया। राजा युधिष्ठिर के कुशल प्रश्न करने पश्चात जब संजय सुखपूर्वक बैठ गया, तब अपने आने का कारण  बताते हुए उसने इस प्रकार कहा।
  
 
'''संजय ने कहा'''- विदुरजी ! [[अम्बिकानन्दन]] महाराज धृतराष्ट्र आपको स्मरण करते हैं। आप जल्द चलकर उनसे मिलिये और उन्हें जीवनदान दीजिये। साधु शिरोमणि ! आप [[कुरू]] कुल को आनन्दित करने वाले इन नरश्रेष्ठ पाण्डवों से विदा लेकर महाराज के आदेश से शीघ्र उनके पास चलें।
 
'''संजय ने कहा'''- विदुरजी ! [[अम्बिकानन्दन]] महाराज धृतराष्ट्र आपको स्मरण करते हैं। आप जल्द चलकर उनसे मिलिये और उन्हें जीवनदान दीजिये। साधु शिरोमणि ! आप [[कुरू]] कुल को आनन्दित करने वाले इन नरश्रेष्ठ पाण्डवों से विदा लेकर महाराज के आदेश से शीघ्र उनके पास चलें।
  
'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''-  [[जनमेजय]] ! स्वजनों के परम प्रिय बुद्धिमान् विदुरजी ने जब संजय ने इस प्रकार कहा, तब वे [[युधिष्ठिर]] की अनुमति लेकर फिर हस्तिनापुर आये। वहाँ महातेजस्वी अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने उनसे कहा- धर्मज्ञ विदुर ! तुम आ गये मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। अनघ ! यह भी मेरे सौभाग्य की बात कि तुम मुझे भूले नहीं। भरत कुल भूषण ! मैं आज दिन-रात तुम्हारे लिये जागते रहने के कारण अपने शरीर की विचित्र दशा देख रहा हूँ। ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी को अपने ह्रदय से लगा लिया और उनका मस्तक सूँघते हुए कहा-‘निप्पाप विदुर ! मैंने तुमसे जो अप्रिय बात कह दी है, उसके लिये मुझे क्षमा करो।
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'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''-  [[जनमेजय]] ! स्वजनों के परम प्रिय बुद्धिमान विदुरजी से जब संजय ने इस प्रकार कहा, तब वे [[युधिष्ठिर]] की अनुमति लेकर फिर हस्तिनापुर आये। वहाँ महातेजस्वी अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने उनसे कहा- धर्मज्ञ विदुर ! तुम आ गये मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। अनघ ! यह भी मेरे सौभाग्य की बात है कि तुम मुझे भूले नहीं। भरतकुल भूषण ! मैं आज दिन-रात तुम्हारे लिये जागते रहने के कारण अपने शरीर की विचित्र दशा देख रहा हूँ। ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी को अपने ह्रदय से लगा लिया और उनका मस्तक चूमते हुए कहा-‘निष्पाप विदुर ! मैंने तुमसे जो अप्रिय बात कह दी है, उसके लिये मुझे क्षमा करो।
  
'''विदुरजी ने कहा'''- मैंने तो सब क्षमा कर दिया है। आप मेरे परम गुरू हैं। मैं शीघ्रता पूर्वक आप के दर्शन के लिए आया हूँ। नरश्रेष्ठ ! धर्मात्मा पुरूष दीन जनों-की ओर अधिक झुकते हैं। आपको इसके लिए मन में विचार नहीं करना चाहिये।भारत ! मेरे लिये जैसे पाण्डु के पुत्र हैं, वैसे ही आपके भी। परंतु पाण्डव इन दिनों दीन दशा में हैं,अतः इनके प्रति मेरे ह्रदय का झुकाव हो गया।
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'''विदुरजी ने कहा'''- मैंने तो सब क्षमा कर दिया है। आप मेरे परमगुरू हैं। मैं शीघ्रतापूर्वक आप के दर्शन के लिए आया हूँ। नरश्रेष्ठ ! धर्मात्मा पुरुष दीन- जनों की ओर अधिक झुकते हैं। आपको इसके लिए मन में विचार नहीं करना चाहिये।भारत ! मेरे लिये जैसे पाण्डु के पुत्र हैं, वैसे ही आपके भी। परंतु पाण्डव इन दिनों दीन दशा में हैं,अतः इनके प्रति मेरे ह्रदय का झुकाव हो गया।
  
 
''' वैशम्पायनजी कहते है''' - जनमेजय ! वे दोनों महातेजस्वी भाई विदुर और एक दूसरे से अनुनय-विनय करके अत्यन्त प्रसन्न हो गये।
 
''' वैशम्पायनजी कहते है''' - जनमेजय ! वे दोनों महातेजस्वी भाई विदुर और एक दूसरे से अनुनय-विनय करके अत्यन्त प्रसन्न हो गये।
  
 
<div style="text-align:left; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्र्तगत अरण्यपर्व में विदुरप्रत्यागमनविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
<div style="text-align:left; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्र्तगत अरण्यपर्व में विदुरप्रत्यागमनविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ।</div>
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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१३:५३, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षष्ठ (6) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्ट्र संजय को भेजकर वन से बुलवाना और उनसे क्षमा-प्रार्थना

वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन ! जब विदुरजी पाण्डवों के आश्रम पर चले गये तब महाबुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र-को बड़ा पश्चाताप हुआ। उन्होंने सोचा,विदुर संधि और विग्रह आदि नीति को अच्छी तरह जानते हैं, जिसके कारण उनका बहुत बड़ा प्रभाव है। वे पाण्डवों के पक्ष में हो गये तो भविष्य में उनका महान अभ्युदय होगा। विदुर का स्मरण करके वे मोहित-से हो गये और सभाभवन के द्वार पर आकर सब राजाओं के देखते-देखते अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर होश में आने पर वे पृथ्वी से उठ खड़े हुए और समीप आये हुए संजय से इस प्रकार बोले- संजय ! विदुर मेरे भाई और सुह्रद् हैं। वे साक्षात दूसरे धर्म के समान हैं। उनकी याद आने से मेरा ह्रदय अत्यन्त विदीर्ण-सा होने लगा है। ‘तुम मेरे धर्मज्ञ भ्राता विदुर को शीघ्र यहाँ बुला लाओ।‘ ऐसा कहते हुए राजा धृतराष्ट्र दीन भाव से फूट-फूटकर रोने लगे। महाराजा धृतराष्ट्र विदुरजी की याद आने से मोहित पश्चाताप से खिन्न हो उठे और भ्रातृस्नेहवश संजय से पुनः इस प्रकार बोले- संजय ! जाओ, मेरे भाई विदुरजी का पता लगाओ। मुझ पापी ने क्रोधवश उन्हें निकाल दिया। वे जीवित तो हैं न।? अपरिमित बुद्धि वाले मेरे उन विद्वान भाई ने पहले कभी कोई छोटा-सा भी अपराध नहीं किया है। बुद्धिमान संजय ! मुझसे परम मेधावी विदुर का बड़ा अपराध हुआ। तुम जाकर उन्हें ले आओ नहीं तो मैं प्राण त्याग दूँगा। राजा का यह वचन सुनकर संजय ने उनका आदर करते हुए 'बहुत अच्छा' कहकर काम्यकवन को प्रस्थान किया। जहाँ पाण्डव रहते थे उस वन में शीघ्र पहुँचकर संजय ने देखा राजा युधिष्ठिर मृगचर्म धारण करके विदुरजी तथा सहस्त्रों, ब्राह्मणों के साथ बैठे हुए हैं और देवताओं से घिरे हुए इन्द्र की भाँति अपने भाइयों से सुरक्षित हैं। युधिष्ठिर के पास पहुँचकर संजय ने उनका सम्मान किया। फिर भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव ने संजय का यथोचित सत्कार किया। राजा युधिष्ठिर के कुशल प्रश्न करने पश्चात जब संजय सुखपूर्वक बैठ गया, तब अपने आने का कारण बताते हुए उसने इस प्रकार कहा।

संजय ने कहा- विदुरजी ! अम्बिकानन्दन महाराज धृतराष्ट्र आपको स्मरण करते हैं। आप जल्द चलकर उनसे मिलिये और उन्हें जीवनदान दीजिये। साधु शिरोमणि ! आप कुरू कुल को आनन्दित करने वाले इन नरश्रेष्ठ पाण्डवों से विदा लेकर महाराज के आदेश से शीघ्र उनके पास चलें।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! स्वजनों के परम प्रिय बुद्धिमान विदुरजी से जब संजय ने इस प्रकार कहा, तब वे युधिष्ठिर की अनुमति लेकर फिर हस्तिनापुर आये। वहाँ महातेजस्वी अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने उनसे कहा- धर्मज्ञ विदुर ! तुम आ गये मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। अनघ ! यह भी मेरे सौभाग्य की बात है कि तुम मुझे भूले नहीं। भरतकुल भूषण ! मैं आज दिन-रात तुम्हारे लिये जागते रहने के कारण अपने शरीर की विचित्र दशा देख रहा हूँ। ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी को अपने ह्रदय से लगा लिया और उनका मस्तक चूमते हुए कहा-‘निष्पाप विदुर ! मैंने तुमसे जो अप्रिय बात कह दी है, उसके लिये मुझे क्षमा करो।

विदुरजी ने कहा- मैंने तो सब क्षमा कर दिया है। आप मेरे परमगुरू हैं। मैं शीघ्रतापूर्वक आप के दर्शन के लिए आया हूँ। नरश्रेष्ठ ! धर्मात्मा पुरुष दीन- जनों की ओर अधिक झुकते हैं। आपको इसके लिए मन में विचार नहीं करना चाहिये।भारत ! मेरे लिये जैसे पाण्डु के पुत्र हैं, वैसे ही आपके भी। परंतु पाण्डव इन दिनों दीन दशा में हैं,अतः इनके प्रति मेरे ह्रदय का झुकाव हो गया।

वैशम्पायनजी कहते है - जनमेजय ! वे दोनों महातेजस्वी भाई विदुर और एक दूसरे से अनुनय-विनय करके अत्यन्त प्रसन्न हो गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्र्तगत अरण्यपर्व में विदुरप्रत्यागमनविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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