"महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 49-69" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 49-69 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत वनपर्व तृतीय अध्याय श्लोक 61-86</font>
 
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आप ही हंस (शुद्ध स्वरूप), सविता (जगत की उत्पत्ति करने वाले), भानु (प्रकाशमान), अंशुमाली (किरण समूह से सुशोभित), वृषाकपि (धर्मरक्षक), विवस्वान् (सर्वव्यापी), मिहिर (जल की वृष्टि करने वाले ), पुषा (पषक), मित्र (सब के सुह्रद्) , धर्म ( धारण करने वाले ), सहस्त्ररश्मि (हजारों किरणों वाले), आदित्य (अदिति पुत्र), तपन (तापकारी), गवाम्पति (किरणें के स्वामी ), मर्तण्ड, अर्क (अर्चनीय), रवि, सूर्य (उत्पादक), शरणय (शरणागति की रक्षा करने वाले), दिनकृत् (दिन के कर्ता), दिवाकर (दिन को प्रकट करने वाले), सप्तसप्ति (सात घोड़ो वाले ), धामकेशी (ज्योर्तिमयी किरणों वाले), विरोचन (देदीप्यमान), आशुगामी (शीघ्रगामी) तमोघ्न (अन्धकार नाशक) तथा हरिताश्व (हरे रंग के घोड़ो वाले ) कहे जाते हैं। जो सप्तमी अथवा अष्टमी को खेद अहंकार भक्तिभाव से आपकी पूजा करता है उस मनुष्य को लक्ष्मी प्राप्त होती है। भगवन ! जो अनन्य चित्त से आपकी अर्चना और वन्दना करते हैं, उन पर कभी आपत्ति नहीं आती। वे मानसिक चिंताओं तथा रोगों से भी ग्रस्त न‍हीं होते हैं। जो प्रेमपूर्वक आपके प्रति भक्ति रखते हैं वे समस्त रोगों तथा पापों से  रहित हो चिरंजीव एवं सुखी होते हैं। अन्नपते ! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करने की इच्छा से अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ। आप मुझे अन्न देने की कृपा करें।आपके चरणों के निेकट रहने वाले जो माठर, अरुण  तथा दण्ड आादि अनुचर (गण)हैं, वे विद्युत के प्रवर्तक हैं। मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ। क्षुभा साथ जो मैत्रीभाव से तथा गौरी-पह्मा आदि अन्य भूताएँ हैं, उन सब को नमस्कार करता हूँ। वे मेरी व सभी शरणागत की रक्षा करें।
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आप ग्रीष्म-ऋतु में अपनी किरणों से समस्त देहधारियों से तेज और सम्पूर्ण औषधियों के रस का सार खींचकर पुनः उसे वर्षाकाल में उसे बरसा देते हैं। वर्षा ऋतु में आपकी कुछ किरणें तपती हैं, कुछ जलाती हैं कुछ मेघ बनकर गरजती हैं बिजली बनकर चमकती हैं तथा वर्षा भी करती हैं। शीत काल की वायु से पीड़ित जगत को अग्नि, कम्बल और वस्त्र भी उतना सुख नहीं देते, जितना आप की किरणें देती हैं। आप अपनी किरणों द्वारा तेरह<ref>जम्बू,प्लक्ष, शाल्मलि, कुशल,कुश,क्रौन्च,शाक और पुष्कर- ये सात प्रधान द्वीप माने गये हैं। इनके सिवा, कई उपद्वीप ऐसे हैं, जिनको लेकर यहाँ 13 द्वीप बनाये गये हैं। </ref> द्वीपों  से युक्त सम्पूर्ण पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं व अकेले ही तीनों लोकों के हित के लिए तत्पर रहते हैं। यदि आप उदय न हों तो सारा जगता अंधा हो जाये और मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ एवं काम संबंधी कर्मों में से प्रवृत्त न हों।
  
'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''- महाराज ! जब युधिष्ठिर ने लोकभावन भगवान भास्कर का इस प्रकार स्तवन किया, तब दिवाकर ने प्रसन्न होकर उन पाण्डु कुमारों को दर्शन दिया उस समय उनके श्री अंग प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित हो रहे थे।
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गर्भाधान या अग्नि की स्थापना, पशुओं को बाँधना, इष्टि(पूजा), मन्त्र, यज्ञानुष्ठान, और तप आदि समस्त क्रियाएँ आपकी ही कृपा से ब्राह्मण, क्षत्रय और वैश्यगणों द्वारा सम्पन्न की जाती हैं। [[ब्रह्म|ब्रह्मजी]] का जो एक सहस्त्र युगों का दिन बताया गया है,  कालमान के जानने वाले विद्वानों ने उसका आदि अन्त आपको बताया है। मनु और मनु पुत्रों के जगत के (ब्रह्मलोक प्राप्ति कराने वाले ) अमानव पुरुष के समस्त मनवन्तरों के तथा ईश्‍वरों के भी ईश्‍वर भी आप हैं। प्रलयकाल आने पर आप के ही क्रोध से प्रकट हुई संवर्तक नामक अग्नि तीनों लोकों को भस्म करके फिर आपस में ही स्थित हो जाती है। आपकी ही किरणों से उत्पन्न हुए रंग एरावत हाथी महामेघ और बिजलियाँ सम्पूर्ण भूतों का संहार करती हैं। फिर आप ही अपने को महामेघ और बिजली रूप में सम्पूर्ण भूतों का संहार करते हुए एकार्णव के समस्त जल को सोख लेते हैं। आपको ही इन्द्र कहते हैं। आप ही रूद्र, आप ही विष्णु और आप ही प्रजापति हैं। अग्नि, सूक्ष्म मन, प्रभु, तथा सनातन ब्रह्म भी आप ही हैं।
 
 
'''भगवान सूय बोले-''' धर्मराज ! तुम जो कुछ चाहते हो, वह सब तुम्हें प्राप्त होगा। मैं बारह वर्षों तक तुम्हें अन्न प्रदान करूँगा। राजन ! यह मेरी दी हुई ताँबे की बटलोई लो। सुवत ! तुम्हारे रसोई घर में इस पात्र द्वारा फल‌- मूल भोजन करने के योग्य अन्य पदार्थ तथा साग आदि जो चार प्रकार की भोजन-सामग्री तैयार होगी, वह तब तक अक्षय बनी रहेगी, जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी। आज से चैदहवें वर्ष में तुम अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लोगे।
 
 
 
'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''- राजन इतना कहकर भगवान सूर्य वहीं अंर्तधान हो गये। जो कोई अन्य पुरूष भी मन को संयम में रखकर चित्तवृत्तियों को एकाग्र करके इस स्तोत्र का पाठ करेगा वह यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वर भी माँगे तो भगवान सूर्य उसकी मनवांछित वस्तु को दे सकते हैं। जो प्रतिदिन इस स्तोत्र को धारण करता अथवा बार-बार सुनता है, वह यदि पुत्रार्थी हो तो पुत्र पाता है, धन चाहता है तो धन पाता है, विद्या की अभिलाषा रखता हो तो उसे विद्या प्राप्त होती है और पत्नी की इच्छा रखने वाले पुरुष को पत्नी सुलभ होती है। स्त्री हो या पुरुष यदि दोनों  समय इस स्तोत्र का पाठ करता है तो आपत्ति में पड़कर भी उससे मुक्त हो जाता है। बन्धन में पड़ा हुआ मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्यजी ने महात्मा इन्द्र को दी, इन्द्र से नारद जी से धौम्य ने इसे प्राप्त किया। धौम्य से इसका उपदेश पाकर राजा युधिष्ठिर ने अपनी सब कामनाएँ प्राप्त कर लीं। जो इसका अनुष्ठान करता है ,वह सदा संग्राम में विजयी होता है, बहुत धन पाता है, सब पापों से मुक्त होता है और अन्त में सूर्यलोक को जाता है।
 
 
 
'''वैशम्पायनजी कहते हैं''' - [[जनमेजय]] ! वर पाकर धर्म के ज्ञाता [[कुन्ती]] नन्दन [[युधिष्ठिर]] गंगाजी के जल से बाहर निकले। उन्होंने [[धौम्य|धौम्य जी]] के दोनों चरण पकड़े और भाइयों को ह्रदय से लगा लिया। [[द्रौपदी]] ने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने चूल्हे पर बटलोई रखकर रसोई तैयार कराई। द्रौपदी ने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर  के प्रभाव से थोड़ी-सी रसोई उस पात्र में  बढ़ गई और अक्षय हो गई। उसी से वे बाह्यणों को भोजन कराने लगे। बाह्यणों के भोजन कर लेने पर अपने छेाटे भाईयों को भी कराने के पश्चात विघस अवशिष्ट अन्न को युधिष्ठिर सबसे पीछे खाते थे। युधिष्ठिर के भोजन को कर लेने पर द्रौपदी शेष अन्न स्वयं खाती थी। द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उस पात्र का  अन्न समाप्त हो जाता था। इस प्रकार सूर्य से मनोवांछित वरों को पाकर उन्हीं के समान तेजस्वी प्रभावशाली राजा युधिष्ठिर ब्राह्यणों को नियमपूर्वक अन्न दान करने लगे। पुरोंहितों को प्रणाम करके उत्तम तिथि, नक्षत्र एवं पर्वों पर विधि मन्त्र के प्रणाम के अनुसार उनके यज्ञ संबंधी कार्य करने लगे। तदनन्तर स्तिवाचन कराकर ब्राह्यण समुदाय से घिरे हुए पाण्डव धौम्यजी के साथ काम्यक वन को चले गये।
 
 
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अरण्यपर्व में काम्यकवन प्रवेश विषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
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आप ही हंस (शुद्ध स्वरूप), सविता (जगत की उत्पत्ति करने वाले), भानु (प्रकाशमान), अंशुमाली (किरण समूह से सुशोभित), वृषाकपि (धर्मरक्षक), विवस्वान् (सर्वव्यापी), मिहिर (जल की वृष्टि करने वाले ), पुषा (पषक), मित्र (सब के सुह्रद्) , धर्म ( धारण करने वाले ), सहस्त्ररश्मि (हजारों किरणों वाले), आदित्य (अदिति पुत्र), तपन (तापकारी), गवाम्पति (किरणें के स्वामी ), मर्तण्ड, अर्क (अर्चनीय), रवि, सूर्य (उत्पादक), शरणय (शरणागति की रक्षा करने वाले), दिनकृत् (दिन के कर्ता), दिवाकर (दिन को प्रकट करने वाले), सप्तसप्ति (सात घोड़ो वाले ), धामकेशी (ज्योर्तिमयी किरणों वाले), विरोचन (देदीप्यमान), आशुगामी (शीघ्रगामी) तमोघ्न (अन्धकार नाशक) तथा हरिताश्व (हरे रंग के घोड़ो वाले ) कहे जाते हैं। जो सप्तमी अथवा अष्टमी को खेद अहंकार भक्तिभाव से आपकी पूजा करता है उस मनुष्य को लक्ष्मी प्राप्त होती है। भगवन ! जो अनन्य चित्त से आपकी अर्चना और वन्दना करते हैं, उन पर कभी आपत्ति नहीं आती। वे मानसिक चिंताओं तथा रोगों से भी ग्रस्त न‍हीं होते हैं। जो प्रेमपूर्वक आपके प्रति भक्ति रखते हैं वे समस्त रोगों तथा पापों से  रहित हो चिरंजीव एवं सुखी होते हैं। अन्नपते ! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करने की इच्छा से अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ। आप मुझे अन्न देने की कृपा करें।आपके चरणों के निेकट रहने वाले जो माठर, अरुण  तथा दण्ड आादि अनुचर (गण)हैं, वे विद्युत के प्रवर्तक हैं। मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ। क्षुभा साथ जो मैत्रीभाव से तथा गौरी-पह्मा आदि अन्य भूताएँ हैं, उन सब को नमस्कार करता हूँ। वे मेरी व सभी शरणागत की रक्षा करें।
  
{{लेख क्रम |पिछला= महाभारत वनपर्व अध्याय 3 श्लोक 32-60|अगला=महाभारत वनपर्व अध्याय 4 श्लोक 1-22}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 29-48|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 70-86}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
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१३:५२, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

तृतीय (3) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 49-69 का हिन्दी अनुवाद

आप ग्रीष्म-ऋतु में अपनी किरणों से समस्त देहधारियों से तेज और सम्पूर्ण औषधियों के रस का सार खींचकर पुनः उसे वर्षाकाल में उसे बरसा देते हैं। वर्षा ऋतु में आपकी कुछ किरणें तपती हैं, कुछ जलाती हैं कुछ मेघ बनकर गरजती हैं बिजली बनकर चमकती हैं तथा वर्षा भी करती हैं। शीत काल की वायु से पीड़ित जगत को अग्नि, कम्बल और वस्त्र भी उतना सुख नहीं देते, जितना आप की किरणें देती हैं। आप अपनी किरणों द्वारा तेरह[१] द्वीपों से युक्त सम्पूर्ण पृथ्वी को प्रकाशित करते हैं व अकेले ही तीनों लोकों के हित के लिए तत्पर रहते हैं। यदि आप उदय न हों तो सारा जगता अंधा हो जाये और मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ एवं काम संबंधी कर्मों में से प्रवृत्त न हों।

गर्भाधान या अग्नि की स्थापना, पशुओं को बाँधना, इष्टि(पूजा), मन्त्र, यज्ञानुष्ठान, और तप आदि समस्त क्रियाएँ आपकी ही कृपा से ब्राह्मण, क्षत्रय और वैश्यगणों द्वारा सम्पन्न की जाती हैं। ब्रह्मजी का जो एक सहस्त्र युगों का दिन बताया गया है, कालमान के जानने वाले विद्वानों ने उसका आदि अन्त आपको बताया है। मनु और मनु पुत्रों के जगत के (ब्रह्मलोक प्राप्ति कराने वाले ) अमानव पुरुष के समस्त मनवन्तरों के तथा ईश्‍वरों के भी ईश्‍वर भी आप हैं। प्रलयकाल आने पर आप के ही क्रोध से प्रकट हुई संवर्तक नामक अग्नि तीनों लोकों को भस्म करके फिर आपस में ही स्थित हो जाती है। आपकी ही किरणों से उत्पन्न हुए रंग एरावत हाथी महामेघ और बिजलियाँ सम्पूर्ण भूतों का संहार करती हैं। फिर आप ही अपने को महामेघ और बिजली रूप में सम्पूर्ण भूतों का संहार करते हुए एकार्णव के समस्त जल को सोख लेते हैं। आपको ही इन्द्र कहते हैं। आप ही रूद्र, आप ही विष्णु और आप ही प्रजापति हैं। अग्नि, सूक्ष्म मन, प्रभु, तथा सनातन ब्रह्म भी आप ही हैं।

आप ही हंस (शुद्ध स्वरूप), सविता (जगत की उत्पत्ति करने वाले), भानु (प्रकाशमान), अंशुमाली (किरण समूह से सुशोभित), वृषाकपि (धर्मरक्षक), विवस्वान् (सर्वव्यापी), मिहिर (जल की वृष्टि करने वाले ), पुषा (पषक), मित्र (सब के सुह्रद्) , धर्म ( धारण करने वाले ), सहस्त्ररश्मि (हजारों किरणों वाले), आदित्य (अदिति पुत्र), तपन (तापकारी), गवाम्पति (किरणें के स्वामी ), मर्तण्ड, अर्क (अर्चनीय), रवि, सूर्य (उत्पादक), शरणय (शरणागति की रक्षा करने वाले), दिनकृत् (दिन के कर्ता), दिवाकर (दिन को प्रकट करने वाले), सप्तसप्ति (सात घोड़ो वाले ), धामकेशी (ज्योर्तिमयी किरणों वाले), विरोचन (देदीप्यमान), आशुगामी (शीघ्रगामी) तमोघ्न (अन्धकार नाशक) तथा हरिताश्व (हरे रंग के घोड़ो वाले ) कहे जाते हैं। जो सप्तमी अथवा अष्टमी को खेद अहंकार भक्तिभाव से आपकी पूजा करता है उस मनुष्य को लक्ष्मी प्राप्त होती है। भगवन ! जो अनन्य चित्त से आपकी अर्चना और वन्दना करते हैं, उन पर कभी आपत्ति नहीं आती। वे मानसिक चिंताओं तथा रोगों से भी ग्रस्त न‍हीं होते हैं। जो प्रेमपूर्वक आपके प्रति भक्ति रखते हैं वे समस्त रोगों तथा पापों से रहित हो चिरंजीव एवं सुखी होते हैं। अन्नपते ! मैं श्रद्धापूर्वक सबका आतिथ्य करने की इच्छा से अन्न प्राप्त करना चाहता हूँ। आप मुझे अन्न देने की कृपा करें।आपके चरणों के निेकट रहने वाले जो माठर, अरुण तथा दण्ड आादि अनुचर (गण)हैं, वे विद्युत के प्रवर्तक हैं। मैं उन सबकी वन्दना करता हूँ। क्षुभा साथ जो मैत्रीभाव से तथा गौरी-पह्मा आदि अन्य भूताएँ हैं, उन सब को नमस्कार करता हूँ। वे मेरी व सभी शरणागत की रक्षा करें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जम्बू,प्लक्ष, शाल्मलि, कुशल,कुश,क्रौन्च,शाक और पुष्कर- ये सात प्रधान द्वीप माने गये हैं। इनके सिवा, कई उपद्वीप ऐसे हैं, जिनको लेकर यहाँ 13 द्वीप बनाये गये हैं।

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