"महाभारत वन पर्व अध्याय 22 श्लोक 22-38" के अवतरणों में अंतर
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− | == | + | ==द्वाविंश (22) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)== |
− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 22-38 का हिन्दी अनुवाद</div> |
− | + | ‘महाबाहु केशव ! अब शाल्व की ओर से कोमलता और मित्रभाव हटा लीजिये। इसे मार डालिये, जीवित न रहने दीजिये। ‘शत्रुहन्ता वीरवर ! आपको सारा पराक्रम लगाकर इस शत्रु का वध कर डालना चाहिये। कोई कितना ही बलवान क्यों न हो, उसे अपने दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना नहीं करना चाहिये।' ‘कोई शत्रु अपने घर में आसन पर बैठा हो( युद्ध न करना चाहता हो ), तो भी उसे नष्ट करने से चूकना नहीं चाहिये; फिर जो संग्राम में युद्ध करने के लिये खड़ा हो, उसकी तो बात ही क्या है?' अतः पुरुष सिंह ! प्रभो ! आप सभी उपायों से इस शत्रु को मार डालिये। वृष्णिवंशावतंस ! इस कार्य में आपको पुनः विलम्ब नहीं करना चाहिये। यह मृदुतापूर्ण उपाय से वश में आने वाला नहीं। वास्तव में यह आपका मित्र भी नहीं है; क्योंकि वीर ! इसने आपके साथ युद्ध किया और द्वारकापुरी को तहस-नहस कर दिया, अतः इसको शीघ्र मार डालना चाहिये।‘ कुन्तीनन्दन !' सारथि के मुख से इस तरह की बातें सुनकर मैंने सोचा, यह ठीक ही तो कहता है। यह विचार कर, मैंने शाल्वराज का वध करने और सौभ विमान को गिराने के लिये युद्ध में मन लगा दिया।' | |
− | ''' | + | '''वीर ! तत्पश्चात मैंने दारुक से कहा''' --‘सारथे ! दो घड़ी और ठहरो( फिर तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी)।' ‘ तदनन्तर मैंने कहीं भी कुण्ठित न होने वाले, दिव्य, अभेद्य, अत्यन्त शक्तिशाली, सब कुछ सहन करने में समर्थ, प्रिय तथा परमकान्तिमान आग्नेय शस्त्र का अपने धनुष पर संधान किया। वह अस्त्र युद्ध में दानवों का अन्त करने वाला था। इतना ही नहीं, वह यक्षो, राक्षसों, दानवों तथा विपक्षी राजाओं को भी भस्म कर डालने वाला और महान था। वह आग्नेय शास्त्र ( सुदर्शन ) चक्र के रूप में था। इसके परिधि भाग में सब तीखे छुरे लगे हुए थे। वह उज्ज्वल अस्त्र काल, यम और अन्त के समान भयंकर था। उस शत्रुनाशक अनुपम अस्त्र को अभिमन्त्रि करके मैंने कहा-‘तुम अपनी शक्ति से सौभविमान और उस पर रहने वाले मेरे शत्रुओं को मार डालो।' ‘ ऐसा कहकर अपने बाहुबल से रोषपूर्वक मैंने वह अस्त्र सौभ विमान की ओर चलाया। |
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− | {{लेख क्रम |पिछला= महाभारत | + | आकाश में जाते ही उस सुर्दशन चक्र का स्वरूप प्रलयकाल में उगनेवाले द्वितीय सूर्य के भांति प्रकाशित हो उठा। उस दिव्य शास्त्र ने सौभनगर में पहुँचकर उसे श्रीहीन कर दिया और जैसे आरा ऊँचे काठ को चीर डालता है, उसी प्रकार सौभ विेमान को बीच से काट डाला। सुदर्शन चक्र की शक्ति से कटकर दो टुकड़ों में बँटा हुआ सौभ विमान महादेवजी के बाणों से छिन्न-भिन्न हुए त्रिपुर की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। सौभ विमान के गिरने पर चक्र फिर से मेरे हाथों में आ गया। मैंने फिर उसे लेकर वेगपूर्वक चलाया और कहा-‘अब की बार शाल्व को मारने के लिये तुम्हें छोड़ रहा हूँ।' तब उस चक्र ने उस महासमर में बड़ी भारी गदा घुमाने वाले शाल्व के सहसा दो टुकड़े कर दिये और वह तेज से प्रज्वलित हो उठा। वीर शाल्व के मारे जाने पर दानवों के मन मे भय समा गया। मेरे बाणों से पीड़त हो हाहाकार करते हुए वे सब दिशाओं में भाग गये। |
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+ | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-21|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 22 श्लोक 39-54}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
− | {{महाभारत}} | + | {{सम्पूर्ण महाभारत}} |
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१३:३२, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
द्वाविंश (22) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
‘महाबाहु केशव ! अब शाल्व की ओर से कोमलता और मित्रभाव हटा लीजिये। इसे मार डालिये, जीवित न रहने दीजिये। ‘शत्रुहन्ता वीरवर ! आपको सारा पराक्रम लगाकर इस शत्रु का वध कर डालना चाहिये। कोई कितना ही बलवान क्यों न हो, उसे अपने दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना नहीं करना चाहिये।' ‘कोई शत्रु अपने घर में आसन पर बैठा हो( युद्ध न करना चाहता हो ), तो भी उसे नष्ट करने से चूकना नहीं चाहिये; फिर जो संग्राम में युद्ध करने के लिये खड़ा हो, उसकी तो बात ही क्या है?' अतः पुरुष सिंह ! प्रभो ! आप सभी उपायों से इस शत्रु को मार डालिये। वृष्णिवंशावतंस ! इस कार्य में आपको पुनः विलम्ब नहीं करना चाहिये। यह मृदुतापूर्ण उपाय से वश में आने वाला नहीं। वास्तव में यह आपका मित्र भी नहीं है; क्योंकि वीर ! इसने आपके साथ युद्ध किया और द्वारकापुरी को तहस-नहस कर दिया, अतः इसको शीघ्र मार डालना चाहिये।‘ कुन्तीनन्दन !' सारथि के मुख से इस तरह की बातें सुनकर मैंने सोचा, यह ठीक ही तो कहता है। यह विचार कर, मैंने शाल्वराज का वध करने और सौभ विमान को गिराने के लिये युद्ध में मन लगा दिया।'
वीर ! तत्पश्चात मैंने दारुक से कहा --‘सारथे ! दो घड़ी और ठहरो( फिर तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी)।' ‘ तदनन्तर मैंने कहीं भी कुण्ठित न होने वाले, दिव्य, अभेद्य, अत्यन्त शक्तिशाली, सब कुछ सहन करने में समर्थ, प्रिय तथा परमकान्तिमान आग्नेय शस्त्र का अपने धनुष पर संधान किया। वह अस्त्र युद्ध में दानवों का अन्त करने वाला था। इतना ही नहीं, वह यक्षो, राक्षसों, दानवों तथा विपक्षी राजाओं को भी भस्म कर डालने वाला और महान था। वह आग्नेय शास्त्र ( सुदर्शन ) चक्र के रूप में था। इसके परिधि भाग में सब तीखे छुरे लगे हुए थे। वह उज्ज्वल अस्त्र काल, यम और अन्त के समान भयंकर था। उस शत्रुनाशक अनुपम अस्त्र को अभिमन्त्रि करके मैंने कहा-‘तुम अपनी शक्ति से सौभविमान और उस पर रहने वाले मेरे शत्रुओं को मार डालो।' ‘ ऐसा कहकर अपने बाहुबल से रोषपूर्वक मैंने वह अस्त्र सौभ विमान की ओर चलाया।
आकाश में जाते ही उस सुर्दशन चक्र का स्वरूप प्रलयकाल में उगनेवाले द्वितीय सूर्य के भांति प्रकाशित हो उठा। उस दिव्य शास्त्र ने सौभनगर में पहुँचकर उसे श्रीहीन कर दिया और जैसे आरा ऊँचे काठ को चीर डालता है, उसी प्रकार सौभ विेमान को बीच से काट डाला। सुदर्शन चक्र की शक्ति से कटकर दो टुकड़ों में बँटा हुआ सौभ विमान महादेवजी के बाणों से छिन्न-भिन्न हुए त्रिपुर की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा। सौभ विमान के गिरने पर चक्र फिर से मेरे हाथों में आ गया। मैंने फिर उसे लेकर वेगपूर्वक चलाया और कहा-‘अब की बार शाल्व को मारने के लिये तुम्हें छोड़ रहा हूँ।' तब उस चक्र ने उस महासमर में बड़ी भारी गदा घुमाने वाले शाल्व के सहसा दो टुकड़े कर दिये और वह तेज से प्रज्वलित हो उठा। वीर शाल्व के मारे जाने पर दानवों के मन मे भय समा गया। मेरे बाणों से पीड़त हो हाहाकार करते हुए वे सब दिशाओं में भाग गये।
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