"महाभारत वन पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-21" के अवतरणों में अंतर

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==द्वाविंश (22) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1- 21 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत वनपर्व द्वाविश अध्याय श्लोक  1- 32 का हिन्दी अनुवाद</font>
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शाल्ववधोपाख्यान की समाप्ति और युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर श्रीकृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा अन्य सब राजाओं का अपने-अपने नगर को प्रस्थान  
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">शाल्ववधोपाख्यान की समाप्ति और युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर श्रीकृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा अन्य सब राजाओं का अपने-अपने नगर को प्रस्थान</div>
 
  
 
'''भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं''' - भरतश्रेष्ठ ! तब मैं अपना सुन्दर धनुष उठाकर बाणों द्वारा सौभ विमान से देवद्रोही दानवों के मस्तक काट-काटकर गिराने लगा। तत्पश्चात शांग धनुष से छूटे हुए विषैले सर्पों के समान प्रतीत होने वाले, सुन्दर पंखों से सुशोभित, प्रचण्ड तेजस्वी तथा अनेक ऊध्र्वगामी बाण मैंने राजा शाल्व पर चलाये। कुरुकुलशिरोमणे ! परंतु उस समय सौभ विमान माया से अदृश्य हो गया, अतः किसी प्रकार दिखायी नहीं देता था। इससे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। भरतवंशी महाराज ! तदनन्तर जब मैं निर्भय अचल भाव से स्थित हुआ तथा उन पर शस्त्र प्रहार करने लगा, तब विकृत मुख और केश वाले  सौभविमान दानवगण जोर-जोर से चिल्लाने लगे। तब मैंने उनके वध के लिये उस महान संग्राम में बड़ी उतावली के साथ शब्दवेधी बाण का संधान किया। यह देख उनका कोलाहल शान्त हो गया। जिन दानवों ने पहले कोलाहल किया था, वे सब सूर्य के समान तेजस्वी शब्दवेधी बाणों द्वारा मारे गये। महाराज ! वह कोलाहल शान्त होने पर फिर दूसरी ओर उनका शब्द सुनायी दिया। तब मैंने उधर भी बाणों का प्रहार किया भारत ! इस तरह वे असुर इधर-उधर ऊपर- नीचे, दसों दिशाओं में कोलाहल करते और मेरे हाथों से मारे जाते थे। तदनन्तर इच्छानुसार चलने वाला सौभ विमान प्राग्ज्योषिपुर के निकट जाकर मेरे नेत्रों को भ्रम  में डालता हुआ फिर दिखायी दिया। तत्रपश्चात लोकान्तकारी भयंकर आकृति वाले दानव ने आकर सहसा पत्थरों की भारी वर्षा के द्वारा मुझे आवृत कर दिया। राजेन्द्र ! शिलाखण्डों की उस निरन्तर वृष्टि से बार-बार आहत होकर मैं पर्वतों से आच्छादित बाँबी-सा प्रतीत होने लगा। राजन ! मेरे चारों ओर शिलाखण्ड जमा हो गये थे। मैं घोड़ों और सारथी सहित प्रस्तर खण्डों से चुन-सा गया था, जिससे दिखायी नहीं देता था। यह देख वृष्णिकुल के श्रेष्ठ वीर जो मेरे सैनिक थे, भय से आहत हो, सहसा चारों दिशाओं में भाग चले।
 
'''भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं''' - भरतश्रेष्ठ ! तब मैं अपना सुन्दर धनुष उठाकर बाणों द्वारा सौभ विमान से देवद्रोही दानवों के मस्तक काट-काटकर गिराने लगा। तत्पश्चात शांग धनुष से छूटे हुए विषैले सर्पों के समान प्रतीत होने वाले, सुन्दर पंखों से सुशोभित, प्रचण्ड तेजस्वी तथा अनेक ऊध्र्वगामी बाण मैंने राजा शाल्व पर चलाये। कुरुकुलशिरोमणे ! परंतु उस समय सौभ विमान माया से अदृश्य हो गया, अतः किसी प्रकार दिखायी नहीं देता था। इससे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। भरतवंशी महाराज ! तदनन्तर जब मैं निर्भय अचल भाव से स्थित हुआ तथा उन पर शस्त्र प्रहार करने लगा, तब विकृत मुख और केश वाले  सौभविमान दानवगण जोर-जोर से चिल्लाने लगे। तब मैंने उनके वध के लिये उस महान संग्राम में बड़ी उतावली के साथ शब्दवेधी बाण का संधान किया। यह देख उनका कोलाहल शान्त हो गया। जिन दानवों ने पहले कोलाहल किया था, वे सब सूर्य के समान तेजस्वी शब्दवेधी बाणों द्वारा मारे गये। महाराज ! वह कोलाहल शान्त होने पर फिर दूसरी ओर उनका शब्द सुनायी दिया। तब मैंने उधर भी बाणों का प्रहार किया भारत ! इस तरह वे असुर इधर-उधर ऊपर- नीचे, दसों दिशाओं में कोलाहल करते और मेरे हाथों से मारे जाते थे। तदनन्तर इच्छानुसार चलने वाला सौभ विमान प्राग्ज्योषिपुर के निकट जाकर मेरे नेत्रों को भ्रम  में डालता हुआ फिर दिखायी दिया। तत्रपश्चात लोकान्तकारी भयंकर आकृति वाले दानव ने आकर सहसा पत्थरों की भारी वर्षा के द्वारा मुझे आवृत कर दिया। राजेन्द्र ! शिलाखण्डों की उस निरन्तर वृष्टि से बार-बार आहत होकर मैं पर्वतों से आच्छादित बाँबी-सा प्रतीत होने लगा। राजन ! मेरे चारों ओर शिलाखण्ड जमा हो गये थे। मैं घोड़ों और सारथी सहित प्रस्तर खण्डों से चुन-सा गया था, जिससे दिखायी नहीं देता था। यह देख वृष्णिकुल के श्रेष्ठ वीर जो मेरे सैनिक थे, भय से आहत हो, सहसा चारों दिशाओं में भाग चले।
प्रजानाथ ! मेरे अदृश्य हो जाने पर भूलोक, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोक-सभी स्थानों में हाहाकार मच गया। राजन !  उस समय मेरे सभी सुहृद खिन्नचित्त हो दुःख- शोक में डूबकर रोने चिल्लाने लगे। शत्रुओं में उल्लास छा गया और मित्रों में शोक। अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले वीर युधिष्ठिर ! इस प्रकार राजा शाल्व एक बार मुझ पर विजयी हो चुका था। यह बात मैंने सचेत होने पर पीछे सारथि के मुँह से सुनी थी। तब मैंने सब प्रकार के प्रस्तरों को विदीर्ण करने वाले इन्द्र के प्रिय आयुध वज्र का प्रहार करके उन समस्त शिलाखण्डों को चूर-चूर कर दिया। महाराज ! उस समय पर्वतखण्डों के भार से पीडि़त हुए मेरे घोडे़ कम्पित-से हो रहे थे। उनकी बलसाव्य चेष्टाएँ बहुत कम हो गयी थीं। जैसे आकाश में बादलों के समुदाय को छिन्न-भिन्न करके सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार शिलाखण्डों को हटाकर मुझे प्रकट हुआ देख मेरे सभी बन्धु-बान्धव हर्ष से खिल उठे। तब प्रस्तरखण्डों के भार से पीडि़त तथा धीरे-धीरे प्राण-साध्य चेष्टा करने वाले घोड़ों को देखकर सारथि ने मुझसे यह समयोचित बात कही- ‘वार्ष्‍णेय ! वह देखिये, सौभराज साल्व वहाँ खड़़ा है। श्रीकृष्ण ! इसकी उपेक्षा करने से कोई लाभ नहीं। इसके वध का कोई उपाय कीजिये।' ‘महाबाहु केशव ! अब शाल्व की ओर से कोमलता और मित्रभाव हटा लीजिये। इसे मार डालिये, जीवित न रहने दीजिये। ‘शत्रुहन्ता वीरवर ! आपको सारा पराक्रम लगाकर इस शत्रु का वध कर डालना चाहिये। कोई कितना ही बलवान क्‍यों न हो, उसे अपने दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना नहीं करना चाहिये।' ‘कोई शत्रु अपने घर में आसन पर बैठा हो( युद्ध न करना चाहता हो ), तो भी उसे नष्ट करने से चूकना नहीं चाहिये; फिर जो संग्राम में युद्ध करने के लिये खड़ा हो, उसकी तो बात ही क्या है?' अतः पुरुष सिंह ! प्रभो ! आप सभी उपायों से इस शत्रु को मार डालिये। वृष्णिवंशावतंस ! इस कार्य में आपको पुनः विलम्ब नहीं करना चाहिये। यह मृदुतापूर्ण उपाय से वश में आने वाला नहीं। वास्तव में यह आपका मित्र भी नहीं है; क्योंकि वीर ! इसने आपके साथ युद्ध किया और द्वारकापुरी को तहस-नहस कर दिया, अतः इसको शीघ्र मार डालना चाहिये।‘ कुन्तीनन्दन !' सारथि के मुख से इस तरह की बातें सुनकर मैंने सोचा, यह ठीक ही तो कहता है। यह विचार कर, मैंने शाल्वराज का वध करने और सौभ विमान को गिराने के लिये युद्ध में मन लगा दिया।'
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प्रजानाथ ! मेरे अदृश्य हो जाने पर भूलोक, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोक-सभी स्थानों में हाहाकार मच गया। राजन !  उस समय मेरे सभी सुहृद खिन्नचित्त हो दुःख- शोक में डूबकर रोने चिल्लाने लगे। शत्रुओं में उल्लास छा गया और मित्रों में शोक। अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले वीर युधिष्ठिर ! इस प्रकार राजा शाल्व एक बार मुझ पर विजयी हो चुका था। यह बात मैंने सचेत होने पर पीछे सारथि के मुँह से सुनी थी। तब मैंने सब प्रकार के प्रस्तरों को विदीर्ण करने वाले इन्द्र के प्रिय आयुध वज्र का प्रहार करके उन समस्त शिलाखण्डों को चूर-चूर कर दिया। महाराज ! उस समय पर्वतखण्डों के भार से पीडि़त हुए मेरे घोडे़ कम्पित-से हो रहे थे। उनकी बलसाव्य चेष्टाएँ बहुत कम हो गयी थीं। जैसे आकाश में बादलों के समुदाय को छिन्न-भिन्न करके सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार शिलाखण्डों को हटाकर मुझे प्रकट हुआ देख मेरे सभी बन्धु-बान्धव हर्ष से खिल उठे। तब प्रस्तरखण्डों के भार से पीडि़त तथा धीरे-धीरे प्राण-साध्य चेष्टा करने वाले घोड़ों को देखकर सारथि ने मुझसे यह समयोचित बात कही- ‘वार्ष्‍णेय ! वह देखिये, सौभराज साल्व वहाँ खड़़ा है। श्रीकृष्ण ! इसकी उपेक्षा करने से कोई लाभ नहीं। इसके वध का कोई उपाय कीजिये।'  
 
 
'''वीर ! तत्पश्चात मैंने दारुक से कहा''' --‘सारथे  ! दो घड़ी और ठहरो( फिर तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायेगी)।' ‘ तदनन्तर मैंने कहीं भी कुण्ठित न होने वाले, दिव्य, अभेद्य, अत्यन्त शक्तिशाली, सब कुछ सहन करने में समर्थ, प्रिय तथा परमकान्तिमान आग्नेय शस्त्र का अपने धनुष पर संधान किया। वह अस्त्र युद्ध में दानवों का अन्त करने वाला था। इतना ही नहीं, वह यक्षो, राक्षसों, दानवों तथा विपक्षी राजाओं को भी भस्म कर डालने वाला और महान था। वह आग्नेय शास्त्र ( सुदर्शन ) चक्र के रूप में था। इसके परिधि भाग में सब तीखे छुरे लगे हुए थे। वह उज्ज्वल अस्त्र काल, यम और अन्त के समान भयंकर था। उस शत्रुनाशक अनुपम अस्त्र को अभिमन्त्रि करके मैंने कहा-‘तुम अपनी शक्ति से सौभविमान और उस पर रहने वाले मेरे शत्रुओं को मार डालो।' ‘ ऐसा कहकर अपने बाहुबल से रोषपूर्वक मैंने वह अस्त्र सौभ विमान की ओर चलाया।
 
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{{लेख क्रम |पिछला= महाभारत वनपर्व अध्याय 21 श्लोक 1-30|अगला=महाभारत वनपर्व अध्याय 22 श्लोक 33-54 }}
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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१३:३२, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वाविंश (22) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1- 21 का हिन्दी अनुवाद

शाल्ववधोपाख्यान की समाप्ति और युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर श्रीकृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा अन्य सब राजाओं का अपने-अपने नगर को प्रस्थान

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - भरतश्रेष्ठ ! तब मैं अपना सुन्दर धनुष उठाकर बाणों द्वारा सौभ विमान से देवद्रोही दानवों के मस्तक काट-काटकर गिराने लगा। तत्पश्चात शांग धनुष से छूटे हुए विषैले सर्पों के समान प्रतीत होने वाले, सुन्दर पंखों से सुशोभित, प्रचण्ड तेजस्वी तथा अनेक ऊध्र्वगामी बाण मैंने राजा शाल्व पर चलाये। कुरुकुलशिरोमणे ! परंतु उस समय सौभ विमान माया से अदृश्य हो गया, अतः किसी प्रकार दिखायी नहीं देता था। इससे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। भरतवंशी महाराज ! तदनन्तर जब मैं निर्भय अचल भाव से स्थित हुआ तथा उन पर शस्त्र प्रहार करने लगा, तब विकृत मुख और केश वाले सौभविमान दानवगण जोर-जोर से चिल्लाने लगे। तब मैंने उनके वध के लिये उस महान संग्राम में बड़ी उतावली के साथ शब्दवेधी बाण का संधान किया। यह देख उनका कोलाहल शान्त हो गया। जिन दानवों ने पहले कोलाहल किया था, वे सब सूर्य के समान तेजस्वी शब्दवेधी बाणों द्वारा मारे गये। महाराज ! वह कोलाहल शान्त होने पर फिर दूसरी ओर उनका शब्द सुनायी दिया। तब मैंने उधर भी बाणों का प्रहार किया भारत ! इस तरह वे असुर इधर-उधर ऊपर- नीचे, दसों दिशाओं में कोलाहल करते और मेरे हाथों से मारे जाते थे। तदनन्तर इच्छानुसार चलने वाला सौभ विमान प्राग्ज्योषिपुर के निकट जाकर मेरे नेत्रों को भ्रम में डालता हुआ फिर दिखायी दिया। तत्रपश्चात लोकान्तकारी भयंकर आकृति वाले दानव ने आकर सहसा पत्थरों की भारी वर्षा के द्वारा मुझे आवृत कर दिया। राजेन्द्र ! शिलाखण्डों की उस निरन्तर वृष्टि से बार-बार आहत होकर मैं पर्वतों से आच्छादित बाँबी-सा प्रतीत होने लगा। राजन ! मेरे चारों ओर शिलाखण्ड जमा हो गये थे। मैं घोड़ों और सारथी सहित प्रस्तर खण्डों से चुन-सा गया था, जिससे दिखायी नहीं देता था। यह देख वृष्णिकुल के श्रेष्ठ वीर जो मेरे सैनिक थे, भय से आहत हो, सहसा चारों दिशाओं में भाग चले। प्रजानाथ ! मेरे अदृश्य हो जाने पर भूलोक, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोक-सभी स्थानों में हाहाकार मच गया। राजन ! उस समय मेरे सभी सुहृद खिन्नचित्त हो दुःख- शोक में डूबकर रोने चिल्लाने लगे। शत्रुओं में उल्लास छा गया और मित्रों में शोक। अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले वीर युधिष्ठिर ! इस प्रकार राजा शाल्व एक बार मुझ पर विजयी हो चुका था। यह बात मैंने सचेत होने पर पीछे सारथि के मुँह से सुनी थी। तब मैंने सब प्रकार के प्रस्तरों को विदीर्ण करने वाले इन्द्र के प्रिय आयुध वज्र का प्रहार करके उन समस्त शिलाखण्डों को चूर-चूर कर दिया। महाराज ! उस समय पर्वतखण्डों के भार से पीडि़त हुए मेरे घोडे़ कम्पित-से हो रहे थे। उनकी बलसाव्य चेष्टाएँ बहुत कम हो गयी थीं। जैसे आकाश में बादलों के समुदाय को छिन्न-भिन्न करके सूर्य उदित होता है, उसी प्रकार शिलाखण्डों को हटाकर मुझे प्रकट हुआ देख मेरे सभी बन्धु-बान्धव हर्ष से खिल उठे। तब प्रस्तरखण्डों के भार से पीडि़त तथा धीरे-धीरे प्राण-साध्य चेष्टा करने वाले घोड़ों को देखकर सारथि ने मुझसे यह समयोचित बात कही- ‘वार्ष्‍णेय ! वह देखिये, सौभराज साल्व वहाँ खड़़ा है। श्रीकृष्ण ! इसकी उपेक्षा करने से कोई लाभ नहीं। इसके वध का कोई उपाय कीजिये।'


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