"महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-18" के अवतरणों में अंतर

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आप भूमि पुत्र नरकासुर को मारकर अदिति के दोनों मणिमय कुण्डलों को ले आये थे एवं आपने ही सृष्टि के  आदि में उत्पन्न होने वाले यज्ञ के उपयुक्त घोड़े की रचना की थी।
 
आप भूमि पुत्र नरकासुर को मारकर अदिति के दोनों मणिमय कुण्डलों को ले आये थे एवं आपने ही सृष्टि के  आदि में उत्पन्न होने वाले यज्ञ के उपयुक्त घोड़े की रचना की थी।
  
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द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 1- 32 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन और द्रौपदी के द्वारा भगवान श्री कृष्ण की स्तुति, द्रौपदी का भगवान श्रीकृष्ण से अपने प्रति किये गये अपमान और दुःख का वर्णन और भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं धृष्टद्युम्न का उसे आश्वासन देना

वैशम्पायनजी कहते हैं -- जनमेजय ! जब भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के वीरों ने सुना कि पाण्डव अत्यन्त दुःख से संतप्त हो राजधानी से निकलकर चले गये, तब वे उनसे मिलने के लिये महान वन में गये। पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न, चेदिराज धृष्टकेतु तथा महापराक्रमी लोकविख्यात केकय राजकुमार सभी भाई क्रोध और अमर्ष में भरकर धृतराष्ट्र पुत्रों की निदा करते हुए कुन्तीकुमारों से मिलने के लिये वन में गये और आपस में इस प्रकार कहने लगे, ‘हमें क्या करना चाहिये।' भगवान श्री कृष्ण को आगे करके वे सभी क्षत्रियशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे। उस समय भगवान श्रीकृष्ण विषादग्रस्त हो कुरुप्रवर युधिष्ठिर को नमस्कार करके इस प्रकार बोले।

श्री कृष्ण ने कहा-- राजाओं ! जान पड़ता है, यह पृथ्वी, दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि और चौथे दुःशासन, इन सबके रक्त का पान करेगी। युद्ध में इनको और इनके सब सेवकों को अन्य राजाओं सहित परास्त करके हम सब लोग धर्मराज युधिष्ठिर को पुनः चक्रवर्ती नरेश के पद पर अभिषिक्त करें। जो दूसरों के साथ छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा है, उसे मार डालना चाहिये, यह सनातन धर्म है।

वैशम्पायनजी कहते हैं -- जनमेजय ! कुन्ती पुत्रों के अपमान से भगवान श्रीकृष्ण ऐसे कुपित हो उठे, मानो वे समस्त प्रजा को जलाकर भस़्म कर देंगे । उन्हें इस प्रकार क्रोध करते देख अर्जुन ने उन्हें शान्त किया और उन सत्य और उन सत्यकीर्ति महात्मा द्वारा पूर्व शरीर में किये हुए कर्मों का कीर्तन आरम्भ किया। भगवान श्रीकृष्ण अंर्तयामी, अप्रमेय, अमिततेजस्वी, प्रजापतियों के भी पति, सम्पूर्ण लोकों के रक्षक तथा परम बुद्धिमानी श्री विष्णु ही हैं (अर्जुन ने उनकी इस प्रकार स्तुति की )।

अर्जुन बोले -- श्रीकृष्ण ! पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर आपने यत्रसायंगृ[१] मुनि के रूप में दस हजार वर्षों तक विचरण किया है अर्थात नारायण ऋषि के रूप में निवास किया है। सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! पूर्वकाल में कभी इस धरा-धाम में अवतीर्ण हो जाने पर आपने ग्यारह हजार वर्षों तक केवल जल पीकर रहते हुए पुष्करतीर्थ में निवास किया है। मधुसूदन ! आज विशालपुरी के बदरिकाश्रम में दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये केवल वायु का आहार करते हुए सौ वर्षों तक एक पैर से खड़े रहे हैं। कृष्ण ! आप सरस्वती नदी के तट पर उत्तरीय वस्त्र का त्याग करके द्वादश वार्षिक यज्ञ करते समय तक का त्याग करते समय शरीर से अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। आपके सारे शरीर में फैली हुई नस- नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। गोविन्द ! आप पुण्यात्मा पुरुषों के निवास योग्य प्रभासतीर्थ में जाकर लोगों को तप में प्रवृत्‍त करने के लिये शौचद-संतोषादि नियमों में स्थित हो महातेजस्वी स्परूप से एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक एक ही पैर से खड़े रहे। ये सब बातें मुझसे श्री व्यासजी ने बतायी हैं। केशव ! आप क्षेत्रज्ञ( सबके आत्मा ),सम्पूर्ण भूतों के आदि और अन्त, तपस्या के अधिष्ठान, यज्ञ और सनातन पुरुष हैं।

आप भूमि पुत्र नरकासुर को मारकर अदिति के दोनों मणिमय कुण्डलों को ले आये थे एवं आपने ही सृष्टि के आदि में उत्पन्न होने वाले यज्ञ के उपयुक्त घोड़े की रचना की थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यत्रसायंगृह मुनि वे होते हैं,जो जहाँ सायंकाल हो जाता है, वहीं घर की तरह निवास करते हैं।

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