"महाभारत आदि पर्व अध्याय 18 श्लोक 21-39": अवतरणों में अंतर

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११:५०, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण

अठारह अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: अठारह अध्‍याय: श्लोक 31- 46 का हिन्दी अनुवाद

यह सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान नारायण से यह बात कही--‘सर्वव्यापी परमात्मन ! इन्हें बल प्रदान कीजिये, यहाँ एकमात्र आप ही सबके आश्रय हैं।' श्री विष्णु बोले—जो लोग इस कार्य में लगे हुए हैं, उन सबको मैं बल दे रहा हूँ। सब लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचल को घुमावें और इस सागर को क्षुब्ध कर दें। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! भगवान नारायण का वचन सुनकर देवताओं और दानवों का बल बढ़ गया। उन सबने मिलकर पुनः वेगपूर्वक महासागर का वह जल मथना आरम्भ किया और उस समस्त जलराशि को अत्यन्त क्षुब्ध कर डाला। फिर तो उस महासागर से अनन्त किरणों बाले सूर्य के समान तेजस्वी, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेत वर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ। तदनन्तर उस घृतस्वरूप जल से श्वेत वस्त्र धारिणी लक्ष्मी देवी का आविर्भाव हुआ। इसके बाद सुरादेवी और श्वेत अश्व प्रकट हुए। फिर अनन्त किरणों से समुज्ज्बल दिव्य कौस्तुभमणि का उस जल से प्रादुर्भाव हुआ, जो भगवान नारायण के वक्षस्थल पर सुशोभित हुई। ब्रह्मन ! महामुने ! वहाँ सम्पूर्ण कामनाओं का फल देने वाले पारिजात वृक्ष एवं सुरभि गौ की उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा तथा मन के समान वेगशाली उच्चैःश्रवा घोड़ा—ये सब सूर्य के मार्ग आकाश का आश्रय ले, जहाँ देवता रहते हैं, उस लोक में चले गये। इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए। वे अपने हाथ में श्वेत कलश लिये हुए थे, जिसमें अमृत भरा था। यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर दानवों में अमृत के लिये कोलाहल मच गया। वे सब कहने लगे ‘यह मेरा है, यह मेरा है।' तत्पश्चात श्वेत रंग के चार दाँतों से सुशोभित विशालकाय महानाग ऐरावत प्रकट हुआ, जिसे वज्रधारी इन्द्र ने अपने अधिकार में कर लिया। तदनन्तर अत्यन्त वेग से मथने पर कालकूट महाविष उत्पन्न हुआ, वह धूमयुक्त अग्नि की भाँति एकाएक सम्पूर्ण जगत को घेर कर जलाने लगा। उस विष की गन्ध सूँघते ही त्रिलोकी के प्राणी मूर्च्छित हो गये । तब ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर भगवान श्रीशंकर ने त्रिलोकों की रक्षा के लिये उस महान विष को पी लिया। मन्त्र मूर्ति भगवान महेश्वर ने विषपान करके उसे अपने कण्ठ में धारण कर लिया। तभी से महादेव जी नीलकण्ठ के नाम से विख्यात हुए, ऐसी जनश्रुति है। ये सब अदभुत बातें देखकर दानव निराश हो गये और अमृत तथा लक्ष्मी के लिये उन्होंने देवताओं के साथ महान वैर बाँध लिया। उसी समय भगवान विष्णु ने मोहिनी माया का आश्रय ले मनोहारिणी स्त्री का अदभुत रूप बनाकर, दानवों के पास पदार्पण किया। समस्त दैत्यों और दानवों ने उस मोहिनी पर अपना हृदय निछावर कर दिया। उनके चित्त में मूढ़ता छा गयी। अतः उन सब ने स्त्री रूपधारी भगवान को वह अमृत सौंप दिया। (भगवान नारायण की वह मूर्तिमती माया हाथ में कलश लिये अमृत परोसने लगी। उस समय दानवों सहित दैत्य पंगत लगाकर बैठै ही रह गये, परन्तु उस देवी ने देवताओं को ही अमृत पिलाया; दैत्यों को नहीं दिया, इससे उन्होंने बड़ा कोलाहल मचाया)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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