"महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 169-192" के अवतरणों में अंतर

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==द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 180-214 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 169-192 का हिन्दी अनुवाद</div>
तत्पश्चात [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा [[जटासुर]] राक्षस का वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमशः राजर्षि वषपर्वा और आष्टिपेण के आश्रम पर गये और वहीं रहने लगे। यहीं [[द्रौपदी]] महात्मा भीमसेन को प्रोत्साहित करती रही। भीमसेन कैलास पर्वत पर चढ़ गये। यहीं अपनी शक्ति के नशे में चूर मणिमान आदि य़क्षों के साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ। यहीं [[पाण्डव|पाण्डवों]] का कुबेर के साथ मागम हुआ। इसी स्थान पर [[अर्जुन]] आकर अपने भाईयो से मिले। इधर सव्यसाची अर्जुन ने अपने बड़े भाई के लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये और हिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवों के साथ उनका घोर युद्ध हुआ। वहाँ देवताओं के शत्रु भयंकर दानव निवातकवच, पौलोम और कालकेयों के साथ अर्जुन ने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान अर्जुन ने [[युधिष्ठिर|धर्मराज युधिष्ठिर]] के पास अपने अस्त्र शस्त्रों का प्रदर्शन करना चाहा। इसी समय [[नारद|देवर्षि नारद]] ने आकर अर्जुन को अस्त्र प्रदर्शन से रोक दिया। अब पाण्डव गन्धमादन पर्वत से नीचे उतरने लगे। फिर एक बीहड़ वन में पर्वत के समान विशाल शरीरधारी बलवान अजगर ने भीमसेन को पकड़ लिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने अजगर-वेशधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देकर भीमसेन को छुड़ा लिय। इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुनः काम्यकवन में आये। जब नरपुगंव पाण्डव काम्यक वन में निवास करने लगे, तब उनसे मिलने के लिये [[वसुदेव|वसुदेवनन्दन]] [[श्रीकृष्ण]] उनके पास आये। यह कथा इसी प्रसंग में कही गयी है। पाण्डवों का महामुनि मार्कण्डेय के साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षि ने बहुत से उपाख्यान सुनाये। उनमें वेनपुत्र पृधुका भी उपाख्यान है। इसी प्रसंग में प्रसिद्ध महात्मा महर्षि ताक्ष्र्य और सरस्वती का संवाद है। तदनन्तर मत्स्योपाख्यान भी कहा गया है। इसी मार्कण्डेय समागम में पुराणों की अनेक कथाएँ, राजा इन्द्रद्युम्न का उपाख्यान तथा धुन्धुमार की कथा भी है। पतिव्रता का और आडिंगरस का उपाख्यान भी इसी प्रसंग में है। द्रौपदी का सत्यभामा के साथ संवाद भी इसी में हैं। तदनन्तर धर्मात्मा पाण्डव पुनः द्वैत-वन में आये। [[कौरव|कौरवों]] ने घोषयात्रा की और गन्धवों ने [[दुर्योधन]] को बंदी बना लिया। वे मन्दमति दुर्योधन को कैद करके लिये जा रहे थे कि अर्जुन ने युद्ध करके उसे छुड़ा लिया। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर स्वप्न हरिण के दर्शन हुए। इसके पश्चात पाण्डव गण काम्यक नामक श्रेष्ठ वन में फिर से गये। इसी प्रसंग में अत्यन्त विस्तार के साथ व्रीहिद्रौणिक उपाख्यान भी कहा गया है। इसी में दुर्वासा जी का उपाख्यान और [[जयद्रथ]] के द्वारा आश्रम से द्रौपदी के हरण की कथा भी कही गयी है। उस समय महावली भयंकर भीमसेन ने वायुवेग से दौड़कर उसका पीछा किया था तथा जयद्रथ के सिर के सारे बाल मूँडकर उसमें पाँच चोटियाँ रख दी थीं। वन पर्व में बड़े ही विस्तार के साथ रामायण का उपाख्यान है, जिसमें भगवान श्री रामचन्द्र जी ने युद्ध भूमि में अपने पराक्रम से रावण का वध किया है। इसके बाद ही सावित्री का उपाख्यान और इन्द्र के द्वारा कर्ण को कुण्डलों से वंचित कर देने की कथा है। इसी प्रसंग में इन्द्र ने प्रसन्न होकर कर्ण को एक शक्ति दी थी, जिससे कोई भी एक वीर मारा जा सकता था। इसके बाद है आरणेय उपाख्यान, जिसमें धर्मराज ने अपने पुत्र युधिष्ठिर को शिक्षा दी थी। और उनसे वरदान प्राप्त कर पाण्डवों ने पश्चिम दिशा की यात्रा की। यह तीसरे वनपर्व की सूची कही गयी। इस पर्व में गिनकर दो सौ उनहत्तर (269) अध्याय कहे गये हैं। ग्यारह हजार छः सौ चौंसठ (11664) श्लोक इस पर्व में हैं। इसके बाद विराट पर्व की विस्तृत सूची सुनो। पाण्डवों ने विराट नगर में जाकर शमशान के पास एक विशाल शमीका वृक्ष देखा। उसी पर उन्होंने अपने सारे अस्त्र शस्त्र रख दिये। तदनन्तर उन्होंने नगर में प्रवेश किया और छदमवेश में वहाँ निवास करने लगे।
 
कीचक स्वभाव से ही दुष्ट था। द्रौपदी को देखते ही उसका मन काम-बाण से घायल हो गया। वह द्रौपदी के पीछे पड़ गया। इसी अपराध में भीमसेन ने उसे मार डाला। यह कथा इसी पर्व में है।
 
राजा दुर्योधन ने पाण्डवों का पता चलाने के लिये बहुत से निपुण गुप्तचर सब ओर भेजे। परंतु उन्हें महात्मा पाण्डवों की गतिविधि का कोई हाल -चाल न मिला। इन्ही दिनों त्रिगतों ने राजा विराट की गौओं का प्रथम बार अपहरण कर लिया। राजा विराट ने त्रिगतों के साथ रोंगटे खड़े कर देने वाला घमासान युद्ध किया। त्रिगर्त विराट को पकड़कर लिये जा रहे थे, किंतु भीमसेन ने उन्हें छुड़ा लिया।
 
साथ ही पाण्डवों ने उनके गोधन को भी त्रिगतों से छुड़ा लिया। इसके बाद ही [[कौरव|कौरवों]] ने विराट नगर पर चढ़ाई करके उनकी उत्तर दिशा की गायों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। इसी अवसर पर किरीटधारी अर्जुन ने अपना पराक्रम प्रकट करके संग्राम भूमि में सम्पूर्ण कौरवों को पराजित कर दिया और विराट के गोधन को लौटा लिया। (पाण्डवों के पहचाने जाने पर) राजा विराट ने अपनी पुत्री उत्तरा शत्रुघाती [[सुभद्रा|सुभद्रा नन्दन]] [[अभिमन्यु]] से विवाह करने के लिये पुत्र वधू के रूप में अर्जुन को दे दी।
 
  
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इसी चरित्र में कार्तवीर्य अर्जुन तथा हयवंशी राजाओं के वध का वर्णन किया गया है। प्रभास तीर्थ में पाण्डवों एवं यादवों के मिलने की कथा भी इसी में है। इसके बाद [[सुकन्या]] का उपाख्यान है। इसी में यह कथा है कि भृगुनन्दन च्यवन ने शर्याति के यज्ञ में [[अश्विनी|अश्विनी कुमारों]] को सोमपान का अधिकारी बना दिया। उन्हीं दोनों ने च्यवन मुनि को बूढ़े से जवान बना दिया। राजा मान्धाता की कथा भी इसी पर्व में कहीं गयी है। यहीं जन्तूपाख्यान है। इसमें राजा सोमक ने बहुत से पुत्र प्राप्त करने के लिये एक पुत्र से यजन किया और उसके फलस्वरूप सौ पुत्र प्राप्त किये। इसके बाद श्येन (बाज) और कपोत (कबूतर) का सर्वोत्तम उपाख्यान है। इसमें इन्द्र और अग्नि राजा शिबि के धर्म की परीक्षा लेने के लिये आये हैं। इसी पर्व में अष्टावक्र का चरित्र भी है। जिसमें बन्दी के साथ जनक के यज्ञ में ब्रह्मार्षि अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ का वर्णन है। वह बन्दी वरूण का पुत्र था और नैयायिकों में प्रधान था। उसे महात्मा अष्टावक्र ने बन्दी को हराकर समुद्र में डाले हुए अपने पिता को प्राप्त कर लिया। इसके बाद यवक्रीत और महात्मा रैभ्य का उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवों की गन्धमादन यात्रा और नारायण श्रम में निवास का वर्णन है। द्रौपदी ने सौगन्धिक कमल लाने के लिये भीमसेन को गन्धमादन पर्वत पर भेजा। यात्रा करते समय महाबाहु भीमसेन ने मार्ग में कदली-वन में महावली पवन नन्दन श्रीहनुमान् जी का दर्शन किया। यही सौगन्धिक कमल के लिये भीमसेन ने सरोवर में घुसकर उसे मथ डाला। वहीं भीमसेन का राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान आदि यक्षों के साथ घमासान युद्ध हुआ।
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 2 श्लोक 143-179|अगला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 2 श्लोक 215-248}}
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तत्पश्चात [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा [[जटासुर]] राक्षस का वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमशः राजर्षि वषपर्वा और आष्टिपेण के आश्रम पर गये और वहीं रहने लगे। यहीं [[द्रौपदी]] महात्मा भीमसेन को प्रोत्साहित करती रही। भीमसेन कैलास पर्वत पर चढ़ गये। यहीं अपनी शक्ति के नशे में चूर मणिमान आदि य़क्षों के साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ। यहीं [[पाण्डव|पाण्डवों]] का कुबेर के साथ मागम हुआ। इसी स्थान पर [[अर्जुन]] आकर अपने भाईयो से मिले। इधर सव्यसाची अर्जुन ने अपने बड़े भाई के लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये और हिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवों के साथ उनका घोर युद्ध हुआ। वहाँ देवताओं के शत्रु भयंकर दानव निवातकवच, पौलोम और कालकेयों के साथ अर्जुन ने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान अर्जुन ने [[युधिष्ठिर|धर्मराज युधिष्ठिर]] के पास अपने अस्त्र शस्त्रों का प्रदर्शन करना चाहा। इसी समय [[नारद|देवर्षि नारद]] ने आकर अर्जुन को अस्त्र प्रदर्शन से रोक दिया। अब पाण्डव गन्धमादन पर्वत से नीचे उतरने लगे। फिर एक बीहड़ वन में पर्वत के समान विशाल शरीरधारी बलवान अजगर ने भीमसेन को पकड़ लिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने अजगर-वेशधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देकर भीमसेन को छुड़ा लिय। इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुनः काम्यकवन में आये। जब नरपुगंव पाण्डव काम्यक वन में निवास करने लगे, तब उनसे मिलने के लिये [[वसुदेव|वसुदेवनन्दन]] [[श्रीकृष्ण]] उनके पास आये। यह कथा इसी प्रसंग में कही गयी है। पाण्डवों का महामुनि मार्कण्डेय के साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षि ने बहुत से उपाख्यान सुनाये। उनमें वेनपुत्र पृधुका भी उपाख्यान है। इसी प्रसंग में प्रसिद्ध महात्मा महर्षि ताक्ष्र्य और सरस्वती का संवाद है। तदनन्तर मत्स्योपाख्यान भी कहा गया है।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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११:४९, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 169-192 का हिन्दी अनुवाद

इसी चरित्र में कार्तवीर्य अर्जुन तथा हयवंशी राजाओं के वध का वर्णन किया गया है। प्रभास तीर्थ में पाण्डवों एवं यादवों के मिलने की कथा भी इसी में है। इसके बाद सुकन्या का उपाख्यान है। इसी में यह कथा है कि भृगुनन्दन च्यवन ने शर्याति के यज्ञ में अश्विनी कुमारों को सोमपान का अधिकारी बना दिया। उन्हीं दोनों ने च्यवन मुनि को बूढ़े से जवान बना दिया। राजा मान्धाता की कथा भी इसी पर्व में कहीं गयी है। यहीं जन्तूपाख्यान है। इसमें राजा सोमक ने बहुत से पुत्र प्राप्त करने के लिये एक पुत्र से यजन किया और उसके फलस्वरूप सौ पुत्र प्राप्त किये। इसके बाद श्येन (बाज) और कपोत (कबूतर) का सर्वोत्तम उपाख्यान है। इसमें इन्द्र और अग्नि राजा शिबि के धर्म की परीक्षा लेने के लिये आये हैं। इसी पर्व में अष्टावक्र का चरित्र भी है। जिसमें बन्दी के साथ जनक के यज्ञ में ब्रह्मार्षि अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ का वर्णन है। वह बन्दी वरूण का पुत्र था और नैयायिकों में प्रधान था। उसे महात्मा अष्टावक्र ने बन्दी को हराकर समुद्र में डाले हुए अपने पिता को प्राप्त कर लिया। इसके बाद यवक्रीत और महात्मा रैभ्य का उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवों की गन्धमादन यात्रा और नारायण श्रम में निवास का वर्णन है। द्रौपदी ने सौगन्धिक कमल लाने के लिये भीमसेन को गन्धमादन पर्वत पर भेजा। यात्रा करते समय महाबाहु भीमसेन ने मार्ग में कदली-वन में महावली पवन नन्दन श्रीहनुमान् जी का दर्शन किया। यही सौगन्धिक कमल के लिये भीमसेन ने सरोवर में घुसकर उसे मथ डाला। वहीं भीमसेन का राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान आदि यक्षों के साथ घमासान युद्ध हुआ।

तत्पश्चात भीमसेन के द्वारा जटासुर राक्षस का वध हुआ। फिर पाण्डव क्रमशः राजर्षि वषपर्वा और आष्टिपेण के आश्रम पर गये और वहीं रहने लगे। यहीं द्रौपदी महात्मा भीमसेन को प्रोत्साहित करती रही। भीमसेन कैलास पर्वत पर चढ़ गये। यहीं अपनी शक्ति के नशे में चूर मणिमान आदि य़क्षों के साथ उनका अत्यन्त घोर युद्ध हुआ। यहीं पाण्डवों का कुबेर के साथ मागम हुआ। इसी स्थान पर अर्जुन आकर अपने भाईयो से मिले। इधर सव्यसाची अर्जुन ने अपने बड़े भाई के लिये दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिये और हिरण्यपुरवासी निवातकवच दानवों के साथ उनका घोर युद्ध हुआ। वहाँ देवताओं के शत्रु भयंकर दानव निवातकवच, पौलोम और कालकेयों के साथ अर्जुन ने जैसा युद्ध किया और जिस प्रकार उन सबका वध हुआ था, वह सब बुद्धिमान अर्जुन ने धर्मराज युधिष्ठिर के पास अपने अस्त्र शस्त्रों का प्रदर्शन करना चाहा। इसी समय देवर्षि नारद ने आकर अर्जुन को अस्त्र प्रदर्शन से रोक दिया। अब पाण्डव गन्धमादन पर्वत से नीचे उतरने लगे। फिर एक बीहड़ वन में पर्वत के समान विशाल शरीरधारी बलवान अजगर ने भीमसेन को पकड़ लिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने अजगर-वेशधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देकर भीमसेन को छुड़ा लिय। इसके बाद महानुभाव पाण्डव पुनः काम्यकवन में आये। जब नरपुगंव पाण्डव काम्यक वन में निवास करने लगे, तब उनसे मिलने के लिये वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण उनके पास आये। यह कथा इसी प्रसंग में कही गयी है। पाण्डवों का महामुनि मार्कण्डेय के साथ समागम हुआ। वहाँ महर्षि ने बहुत से उपाख्यान सुनाये। उनमें वेनपुत्र पृधुका भी उपाख्यान है। इसी प्रसंग में प्रसिद्ध महात्मा महर्षि ताक्ष्र्य और सरस्वती का संवाद है। तदनन्तर मत्स्योपाख्यान भी कहा गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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