"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-19" के अवतरणों में अंतर

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==चौंतीसवॉं अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
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==चौंतीसवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)==
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: चौंतीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद </div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: चौंतीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
श्रेष्‍ठ ब्राहामणोंकी प्रशंसा
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श्रेष्‍ठ ब्राम्हणों की प्रशंसा।
भीष्‍म कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्राहामणोका सदा ही भलीभॉंती पूजन करना चाहिये। चन्‍द्रमा इनके राजा हैं।ये मनुष्‍यको सुख और दु:ख देनेमें समर्थ हैं। राजाओंको चाहिये कि वे उतम भोग,आभूषण तथा पूछकर प्रस्‍तुत किये गये दूसरे मनोवांछित पदार्थ देकर नमस्‍कार आदिके द्वारा सदा ब्राहामणोंकी पूजा करें और पिताके समान उनके पालन-पोषणका ध्‍यान रखें। तभी इन ब्राहामणोंसे राष्‍ट्रमें शांति रह सकती हैं।ठीक उसी तरह, जैसे इन्‍द्रसे वृष्टि प्राप्‍त होनेपर समस्‍त प्राणियोंको सुख-शांति मिलती हैं। सबको यह इच्‍छा करनी चाहिये कि राष्‍ट्रमें ब्रहातैजसे सम्‍प्‍ान्‍न पवित्र बा्हामण उत्‍पन्‍न हो तथा शत्रुओंको संताप देनेवाले महारथी क्षत्रियकी उत्‍पति हो। राजन्! विशुध्‍द जातिसे युक्‍त तथा तीक्ष्‍ण व्रतका पालन करनेवाले धर्मज्ञ ब्राहामणको अपने घरमें ठहराना चाहिये। इससे बढ़कर दूसरा कोई पुण्‍यकर्म नहीं हैं। ब्राहामणोंको जो हविष्‍य अर्पित किया जाता हैं उसे देवता ग्रहण करते हैं, क्‍योंकि बा्रहामण समस्‍त प्राणियोंके पिता हैं। इनसे बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। सुर्य, चन्‍द्रमा, वायु, जल, पृथ्‍वी, आकाश और दिशा- इन सबके अधिष्‍ठाता देवता सदा ब्रहामण के शरीरमें प्रवेश करके अन्‍न भोजन करते हैं। ब्राहमण जिसका अन्‍न नहीं खाते उसके अन्‍नको पितर भी नहीं स्‍वीकार करते। उस ब्राहामणद्रोहीकी पापात्‍माका अन्‍न देवता भी नहीं ग्रहण करते हैं। राजन् ! यदि ब्राहामण संतुष्‍ट हो जायँ तो पितर तथा देवता भी सदा प्रसन्‍न रहते हैं। इसमें कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार वे यजमान भी प्रसन्‍न होते हैं जिनकी दी हुई हवि ब्राहामणोंके उपयोगमें आती हैं। वे मरनेके बाद नष्‍ट नहीं होते हैं, उतम गतिको प्राप्‍त हो जाते हैं। जिससे समस्‍त प्रजा उत्‍पन्‍न होती हैं, वह यज्ञ आदि कर्म ब्राहामणोंसे ही उत्‍पन्‍न होता हैं। जीव जहॉं से उत्‍पन्‍न होता हैं और मृत्‍युके पश्‍चात जहॉं जाता है, उस तत्‍वको, स्‍वर्ग और नरकके मार्गको तथा भूत, वर्तमान और भविष्‍यको ब्राहामण ही जानता है। ब्राहामण मनुष्‍योंमें श्रेष्‍ठ हैं। भरतश्रेष्‍ठ! जो अपने धर्मको जानता है और उसका पालन करता है, वही सच्‍चा ब्राहामण है। जो लोग ब्राहामणोंका अनुसरण करते हैं उनकी कभी पराजय नहीं होती तथा मृत्‍युके पश्‍चात उनका पतन नहीं होता। वे अपमानको भी नहीं प्राप्‍त होते हैं। ब्राहामणके मुखसे जो वाणी निकलती हैं, उसे जो शिरोधार्य करते हैं, वे सम्‍पूर्ण भूतोंको आत्‍मभावसे देखनेवाले महात्‍मा कभी पराभवको नहीं प्राप्‍त होते हैं।। अपने तेज और बल से तपते हुए क्षत्रियोंके तेज और बल ब्राहामणोंके सामने आनेपर ही शान्‍त होते हैं।। भरतश्रेष्‍ठ! भृगुवंशी ब्राहामणोंने तालजंघोको, अंगिराकी संतानोंने नीपवंशी राजाओंको तथा भरद्वाजने हैहयोंको और इलाके पुत्रोंको पराजित किया था। क्षत्रियोंके पास अनेक प्रकारके विचित्र आयुध थे तो भी कृष्‍णमृगचर्म धारण करनेवाले इन ब्राहामणोंने उन्‍हें हरा दिया। क्षत्रियको चाहिये कि ब्राहामणोंको जलपूर्ण कलशदान करके पारलौकिक कार्य आरम्‍भ करे। संसारमें जो कुछ कहा-सुना या पढ़ा जाता है वह सब काठमें छिपी हुई आगकी तरह ब्राहामणोंमें ही स्थित है। भरतश्रेष्‍ठ! इस विषयमें जानकार लोग भगवान श्रीकृष्‍ण और पृथ्‍वीके संवादरुप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते है। श्रीकृष्‍णने पूछा- शुभे! तुम सम्‍पूर्ण भूतोंकी माता हो, इसलिये मैं तुमसे एक संदेह पूछ रहा हूँ। गृहस्‍थ मनुष्‍य किस कर्मके अनुष्‍ठानसे अपने पापका नाश कर सकता है।। पृथ्‍वीने कहा- भगवन! इसके लिये मनुष्‍यको ब्राहामणोंकी ही सेवा करनी चाहिये। यही सबसे पवित्र और उतम कार्य है। ब्राहामणोंकी सेवा करनेवाले पुरुषका समस्‍त रजोगुण नष्‍ट हो जाता है। इसीसे ऐश्‍वर्य, इसीसे कीर्ति और इसीसे उतम बुध्दि भी प्राप्‍त होती है। सदा सब प्रकारकी समृध्दि के लिये नारदजीने मुझसे कहा कि शत्रुओंको संताप देनेवाले महारथी क्षत्रियके उत्‍पन्‍न होनेकी कामना करनी चाहिये। उतम जातिसे सम्‍प्‍ान्‍न, धर्मज्ञ, दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले तथा पवित्र ब्राहामणके उत्‍पन्‍न होनेकी भी इच्‍छा रखनी चाहिये। छोटे-बड़े सब लोगोंसे जो बड़े हैं, उनसे भी ब्राहामण बड़े मान गये हैं। ऐसे ब्राहामण जिसकी प्रशंसा करते हैं उस मनुष्‍यकी वृध्दि होती है और जो ब्राहामणोंकी निन्‍दा करता है वह शीघ्र ही पराभवको प्राप्‍त होता है। जैसे महासागर में फेंका हुआ कच्‍ची मिट्टीका ढेला तुरंत गल जाता हैं, उसी प्रकार ब्राहामणोंका संग प्राप्‍त होते ही सारा दुष्‍कर्म नष्‍ट हो जाता हैं। माधव! देखिये, ब्राहामणोंका कैसा प्रभाव है, उन्‍होंने चन्‍द्रमामें कलंक लगा दिया, समुद्रका पानी खारा बना दिया तथा देवराज इन्‍द्रके शरीरमें एक हजार भगके चिहन उत्‍पन्‍न कर दिये और फिर उन्‍हींके प्रभावसे वे भग नेत्रके रुपमें परिणत हो गये; जिनके कारण शतक्रतु इन्‍द्र ‘सहस्‍त्राक्ष’ नामसे प्रसिध्‍द हुए। मधुसुदन! जो किर्ती, ऐश्‍वर्य और उतम लोकोंको प्राप्‍त करना चाहता हो, वह मनको वशमें रखनेवाला पवित्र ब्राहामणोंकी आज्ञाके अधीन रहे। भीष्‍मजी कहते हैं- कुरुनन्‍दन! पृथ्‍वीके ये वचन सुनकर भगवान मधुसुदनने कहा- ‘वाह-वाह, तुमने बहुत अच्‍छी बात बतायी।‘ ऐसा कहकर उन्‍होंने भूदेवीकी भूरि-‍भूरि प्रशंसा की। कुन्‍तीनन्‍दन! इस दृष्‍टान्‍त एवं ब्राहामण-माहात्‍म्‍यको सुनकर तुम सदा पवित्रभावसे श्रेष्‍ठ ब्राहामणोंका पूजन करते रहो। इससे तुम कल्‍याणके भागी होओगे।  
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भीष्‍म कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्राहामणों का सदा ही भलीभाँति पूजन करना चाहिये। चन्‍द्रमा इनके राजा हैं। ये मनुष्‍य को सुख और दु:ख देने में समर्थ हैं। राजाओं को चाहिये कि वे उत्तम भोग,आभूषण तथा पूछकर प्रस्‍तुत किये गये दूसरे मनोवांछित पदार्थ देकर नमस्‍कार आदि के द्वारा सदा ब्राहामणों की पूजा करें और पिता के समान उनके पालन-पोषणका ध्‍यान रखें। तभी इन ब्राहामणों से राष्‍ट्र में शांति रह सकती है।ठीक उसी तरह, जैसे इन्‍द्र से वृष्टि प्राप्‍त होने पर समस्‍त प्राणियों को सुख-शांति मिलती है। सबको यह इच्‍छा करनी चाहिये कि राष्‍ट्र में ब्रम्ह तेज से सम्‍प्‍ान्‍न पवित्र ब्राम्हण उत्‍पन्‍न हो तथा शत्रुओं को संताप देनेवाले महारथी क्षत्रिय की उत्‍पति हो। राजन! विशुद्ध जाति से युक्‍त तथा तीक्ष्‍ण व्रत का पालन करने वाले धर्मज्ञ ब्राम्हण को अपने घरमें ठहराना चाहिये। इससे बढ़कर दूसरा कोई पुण्‍यकर्म नहीं है। ब्राम्हणों को जो हविष्‍य अर्पित किया जाता है, उसे देवता ग्रहण करते हैं, क्‍योंकि ब्राम्हण समस्‍त प्राणियों के पिता हैं। इनसे बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। सूर्य, चन्‍द्रमा, वायु, जल, पृथ्‍वी, आकाश और दिशा- इन सबके अधिष्‍ठाता देवता सदा ब्राम्हण के शरीर में प्रवेश करके अन्‍न भोजन करते हैं। ब्राम्हण जिसका अन्‍न नहीं खाते उसके अन्‍न को पितर भी नहीं स्‍वीकार करते। उस ब्राम्हणद्रोही की पापात्‍मा का अन्‍न देवता भी नहीं ग्रहण करते हैं। राजन! यदि ब्राम्हण संतुष्‍ट हो जायें तो पितर तथा देवता भी सदा प्रसन्‍न रहते हैं। इसमें कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार वे यजमान भी प्रसन्‍न होते हैं जिनकी दी हुई हवि ब्राम्हणों के उपयोग में आती हैं। वे मरने के बाद नष्‍ट नहीं होते हैं, उतम गति को प्राप्‍त हो जाते हैं। जिससे समस्‍त प्रजा उत्‍पन्‍न होती है,वह यज्ञ आदि कर्म ब्राम्हणों से ही उत्‍पन्‍न होता है। जीव जहाँ से उत्‍पन्‍न होता है और मृत्‍यु के पश्‍चात जहाँ जाता है, उस तत्‍व को, स्‍वर्ग और नरक के मार्ग को तथा भूत, वर्तमान और भविष्‍य को ब्राम्हण ही जानता है। ब्राम्हण मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ हैं। भरतश्रेष्‍ठ! जो अपने धर्म को जानता है और उसका पालन करता है, वही सच्‍चा ब्राम्हण है। जो लोग ब्राम्हणों का अनुसरण करते हैं उनकी कभी पराजय नहीं होती तथा मृत्‍यु के पश्‍चात उनका पतन नहीं होता। वे अपमान को भी नहीं प्राप्‍त होते हैं। ब्राम्हण के मुख से जो वाणी निकलती है, उसे जो शिरोधार्य करते हैं, वे सम्‍पूर्ण भूतों को आत्‍मभाव से देखनेवाले महात्‍मा कभी पराभव को नहीं प्राप्‍त होते हैं। अपने तेज और बल से तपते हुए क्षत्रियों के तेज और बल ब्राहामणों के सामने आने पर ही शान्‍त होते हैं।। भरतश्रेष्‍ठ! भृगुवंशी ब्राहामणों ने तालजंघो को, अंगिरा की संतानों ने नीपवंशी राजाओं को तथा भरद्वाज ने हैहयों को और इलाके पुत्रों को पराजित किया था। क्षत्रियों के पास अनेक प्रकार के विचित्र आयुध थे तो भी कृष्‍ण मृगचर्म धारण करने वाले इन ब्राम्हणों ने उन्‍हें हरा दिया। क्षत्रिय को चाहिये कि ब्राहामणों को जलपूर्ण कलशदान करके पारलौकिक कार्य आरम्‍भ करे। संसारमें जो कुछ कहा-सुना या पढ़ा जाता है वह सब काठ में छिपी हुई आग की तरह ब्राहामणों में ही स्थित है। भरतश्रेष्‍ठ! इस विषय में जानकार लोग भगवान श्रीकृष्‍ण और पृथ्‍वी के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। श्रीकृष्‍ण ने पूछा- शुभे! तुम सम्‍पूर्ण भूतों की माता हो, इसलिये मैं तुमसे एक संदेह पूछ रहा हूँ। गृहस्‍थ मनुष्‍य किस कर्म के अनुष्‍ठान से अपने पाप का नाश कर सकता है।। पृथ्‍वी ने कहा- भगवन! इसके लिये मनुष्‍य को ब्राम्हणों की ही सेवा करनी चाहिये। यही सबसे पवित्र और उत्तम कार्य है। ब्राम्हणों की सेवा करने वाले पुरुष का समस्‍त रजोगुण नष्‍ट हो जाता है। इसी से ऐश्‍वर्य, इसी से कीर्ति और इसी से उत्तम बुद्धि भी प्राप्‍त होती है। सदा सब प्रकार की समृद्धि के लिये नारद जी ने मुझसे कहा कि शत्रुओं को संताप देनेवाले महारथी क्षत्रिय के उत्‍पन्‍न होने की कामना करनी चाहिये। उत्तम जाति से सम्‍प्‍ान्‍न, धर्मज्ञ, दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले तथा पवित्र ब्राम्हण के उत्‍पन्‍न होने की भी इच्‍छा रखनी चाहिये। छोटे-बड़े सब लोगों से जो बड़े हैं, उनसे भी ब्राम्हण बड़े माने गये हैं। ऐसे ब्राम्हण जिसकी प्रशंसा करते हैं उस मनुष्‍य की वृद्धि होती है और जो ब्राहामणों की निन्‍दा करता है वह शीघ्र ही पराभव को प्राप्‍त होता है। जैसे महासागर में फेंका हुआ कच्‍ची मिट्टी का ढेला तुरंत गल जाता है, उसी प्रकार ब्राम्हणों का संग प्राप्‍त होते ही सारा दुष्‍कर्म नष्‍ट हो जाता है। माधव! देखिये, ब्राहामणों का कैसा प्रभाव है, उन्‍होंने चन्‍द्रमा में कलंक लगा दिया, समुद्र का पानी खारा बना दिया तथा देवराज इन्‍द्र के शरीर में एक हजार भगके चिहन उत्‍पन्‍न कर दिये और फिर उन्‍हीं के प्रभाव से वे भग नेत्र के रूप में परिणत हो गये; जिनके कारण शतक्रतु इन्‍द्र ‘सहस्‍त्राक्ष’ नाम से प्रसिद्ध हुए। मधुसुदन! जो कीर्ति, ऐश्‍वर्य और उतम लोकों को प्राप्‍त करना चाहता हो, वह मन को वश में रखने वाला पवित्र ब्राहामणों की आज्ञाके अधीन रहे। भीष्‍म जी कहते हैं- कुरुनन्‍दन! पृथ्‍वी के ये वचन सुनकर भगवान मधुसुदनने कहा- ‘वाह-वाह, तुमने बहुत अच्‍छी बात बतायी।' ऐसा कहकर उन्‍होंने भूदेवी की भूरि-‍भूरि प्रशंसा की। कुन्‍तीनन्‍दन! इस दृष्‍टान्‍त एवं ब्राम्हण-माहात्‍म्‍य को सुनकर तुम सदा पवित्रभाव से श्रेष्‍ठ ब्राहामणों का पूजन करते रहो। इससे तुम कल्‍याण के भागी होओगे।  
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें पृथ्‍वी और वासुदेवका संवादविषयक चौंतीसवॉं अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में पृथ्‍वी और वासुदेव का संवादविषयक चौंतीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।</div>
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 33 श्लोक 1-27|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 35 श्लोक 1-23}}
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 33 श्लोक 1-27|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 35 श्लोक 1-23}}

१०:३५, १० जुलाई २०१५ का अवतरण

चौंतीसवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: चौंतीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद

श्रेष्‍ठ ब्राम्हणों की प्रशंसा। भीष्‍म कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्राहामणों का सदा ही भलीभाँति पूजन करना चाहिये। चन्‍द्रमा इनके राजा हैं। ये मनुष्‍य को सुख और दु:ख देने में समर्थ हैं। राजाओं को चाहिये कि वे उत्तम भोग,आभूषण तथा पूछकर प्रस्‍तुत किये गये दूसरे मनोवांछित पदार्थ देकर नमस्‍कार आदि के द्वारा सदा ब्राहामणों की पूजा करें और पिता के समान उनके पालन-पोषणका ध्‍यान रखें। तभी इन ब्राहामणों से राष्‍ट्र में शांति रह सकती है।ठीक उसी तरह, जैसे इन्‍द्र से वृष्टि प्राप्‍त होने पर समस्‍त प्राणियों को सुख-शांति मिलती है। सबको यह इच्‍छा करनी चाहिये कि राष्‍ट्र में ब्रम्ह तेज से सम्‍प्‍ान्‍न पवित्र ब्राम्हण उत्‍पन्‍न हो तथा शत्रुओं को संताप देनेवाले महारथी क्षत्रिय की उत्‍पति हो। राजन! विशुद्ध जाति से युक्‍त तथा तीक्ष्‍ण व्रत का पालन करने वाले धर्मज्ञ ब्राम्हण को अपने घरमें ठहराना चाहिये। इससे बढ़कर दूसरा कोई पुण्‍यकर्म नहीं है। ब्राम्हणों को जो हविष्‍य अर्पित किया जाता है, उसे देवता ग्रहण करते हैं, क्‍योंकि ब्राम्हण समस्‍त प्राणियों के पिता हैं। इनसे बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है। सूर्य, चन्‍द्रमा, वायु, जल, पृथ्‍वी, आकाश और दिशा- इन सबके अधिष्‍ठाता देवता सदा ब्राम्हण के शरीर में प्रवेश करके अन्‍न भोजन करते हैं। ब्राम्हण जिसका अन्‍न नहीं खाते उसके अन्‍न को पितर भी नहीं स्‍वीकार करते। उस ब्राम्हणद्रोही की पापात्‍मा का अन्‍न देवता भी नहीं ग्रहण करते हैं। राजन! यदि ब्राम्हण संतुष्‍ट हो जायें तो पितर तथा देवता भी सदा प्रसन्‍न रहते हैं। इसमें कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार वे यजमान भी प्रसन्‍न होते हैं जिनकी दी हुई हवि ब्राम्हणों के उपयोग में आती हैं। वे मरने के बाद नष्‍ट नहीं होते हैं, उतम गति को प्राप्‍त हो जाते हैं। जिससे समस्‍त प्रजा उत्‍पन्‍न होती है,वह यज्ञ आदि कर्म ब्राम्हणों से ही उत्‍पन्‍न होता है। जीव जहाँ से उत्‍पन्‍न होता है और मृत्‍यु के पश्‍चात जहाँ जाता है, उस तत्‍व को, स्‍वर्ग और नरक के मार्ग को तथा भूत, वर्तमान और भविष्‍य को ब्राम्हण ही जानता है। ब्राम्हण मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ हैं। भरतश्रेष्‍ठ! जो अपने धर्म को जानता है और उसका पालन करता है, वही सच्‍चा ब्राम्हण है। जो लोग ब्राम्हणों का अनुसरण करते हैं उनकी कभी पराजय नहीं होती तथा मृत्‍यु के पश्‍चात उनका पतन नहीं होता। वे अपमान को भी नहीं प्राप्‍त होते हैं। ब्राम्हण के मुख से जो वाणी निकलती है, उसे जो शिरोधार्य करते हैं, वे सम्‍पूर्ण भूतों को आत्‍मभाव से देखनेवाले महात्‍मा कभी पराभव को नहीं प्राप्‍त होते हैं। अपने तेज और बल से तपते हुए क्षत्रियों के तेज और बल ब्राहामणों के सामने आने पर ही शान्‍त होते हैं।। भरतश्रेष्‍ठ! भृगुवंशी ब्राहामणों ने तालजंघो को, अंगिरा की संतानों ने नीपवंशी राजाओं को तथा भरद्वाज ने हैहयों को और इलाके पुत्रों को पराजित किया था। क्षत्रियों के पास अनेक प्रकार के विचित्र आयुध थे तो भी कृष्‍ण मृगचर्म धारण करने वाले इन ब्राम्हणों ने उन्‍हें हरा दिया। क्षत्रिय को चाहिये कि ब्राहामणों को जलपूर्ण कलशदान करके पारलौकिक कार्य आरम्‍भ करे। संसारमें जो कुछ कहा-सुना या पढ़ा जाता है वह सब काठ में छिपी हुई आग की तरह ब्राहामणों में ही स्थित है। भरतश्रेष्‍ठ! इस विषय में जानकार लोग भगवान श्रीकृष्‍ण और पृथ्‍वी के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। श्रीकृष्‍ण ने पूछा- शुभे! तुम सम्‍पूर्ण भूतों की माता हो, इसलिये मैं तुमसे एक संदेह पूछ रहा हूँ। गृहस्‍थ मनुष्‍य किस कर्म के अनुष्‍ठान से अपने पाप का नाश कर सकता है।। पृथ्‍वी ने कहा- भगवन! इसके लिये मनुष्‍य को ब्राम्हणों की ही सेवा करनी चाहिये। यही सबसे पवित्र और उत्तम कार्य है। ब्राम्हणों की सेवा करने वाले पुरुष का समस्‍त रजोगुण नष्‍ट हो जाता है। इसी से ऐश्‍वर्य, इसी से कीर्ति और इसी से उत्तम बुद्धि भी प्राप्‍त होती है। सदा सब प्रकार की समृद्धि के लिये नारद जी ने मुझसे कहा कि शत्रुओं को संताप देनेवाले महारथी क्षत्रिय के उत्‍पन्‍न होने की कामना करनी चाहिये। उत्तम जाति से सम्‍प्‍ान्‍न, धर्मज्ञ, दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करने वाले तथा पवित्र ब्राम्हण के उत्‍पन्‍न होने की भी इच्‍छा रखनी चाहिये। छोटे-बड़े सब लोगों से जो बड़े हैं, उनसे भी ब्राम्हण बड़े माने गये हैं। ऐसे ब्राम्हण जिसकी प्रशंसा करते हैं उस मनुष्‍य की वृद्धि होती है और जो ब्राहामणों की निन्‍दा करता है वह शीघ्र ही पराभव को प्राप्‍त होता है। जैसे महासागर में फेंका हुआ कच्‍ची मिट्टी का ढेला तुरंत गल जाता है, उसी प्रकार ब्राम्हणों का संग प्राप्‍त होते ही सारा दुष्‍कर्म नष्‍ट हो जाता है। माधव! देखिये, ब्राहामणों का कैसा प्रभाव है, उन्‍होंने चन्‍द्रमा में कलंक लगा दिया, समुद्र का पानी खारा बना दिया तथा देवराज इन्‍द्र के शरीर में एक हजार भगके चिहन उत्‍पन्‍न कर दिये और फिर उन्‍हीं के प्रभाव से वे भग नेत्र के रूप में परिणत हो गये; जिनके कारण शतक्रतु इन्‍द्र ‘सहस्‍त्राक्ष’ नाम से प्रसिद्ध हुए। मधुसुदन! जो कीर्ति, ऐश्‍वर्य और उतम लोकों को प्राप्‍त करना चाहता हो, वह मन को वश में रखने वाला पवित्र ब्राहामणों की आज्ञाके अधीन रहे। भीष्‍म जी कहते हैं- कुरुनन्‍दन! पृथ्‍वी के ये वचन सुनकर भगवान मधुसुदनने कहा- ‘वाह-वाह, तुमने बहुत अच्‍छी बात बतायी।' ऐसा कहकर उन्‍होंने भूदेवी की भूरि-‍भूरि प्रशंसा की। कुन्‍तीनन्‍दन! इस दृष्‍टान्‍त एवं ब्राम्हण-माहात्‍म्‍य को सुनकर तुम सदा पवित्रभाव से श्रेष्‍ठ ब्राहामणों का पूजन करते रहो। इससे तुम कल्‍याण के भागी होओगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्व में पृथ्‍वी और वासुदेव का संवादविषयक चौंतीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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