"महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 67-80" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक  66- 86 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक  66- 86 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
अश्विनी कुमारों ! आप ही देानों ‘नासत्य’ नाम से प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमल की माला धारण कर रक्खी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होने के साथ ही सत्य का पोषण और विस्तार करने वाले हैं। आपके सहयोग के बिना देवता भी उस सनातन सत्य की प्राप्ति में समर्थ नहीं हैं। युवक माता-पिता संतानोत्पत्ति के लिये पहले मुख से अन्न रूप गर्भ धारण करते हैं। तत्पश्चात् पुरूषों में वीर्य रूप में और स्त्री में रजोरूप में परिणत होकर वह अन्न जड़ शरीर बन जाता है। तत्पश्चात् जन्म लेने वाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही। माता के स्तनों का दूध पीने लगता है। हे अश्विनी कुमारों! पूर्वोक्त रूप से संसार बन्धन में बँधे हुए जीवों को आप तत्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाह के लिये मेरी नेत्रेन्द्रिय को भी रोग से मुक्त करें। अश्विनी कुमारों ! मैं आपके गुणों का बखान करके आप दोनों स्तुति नहीं कर सकता। इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचानने में  भूल हो जाती हैं; इसीलिये इस दुर्गम कूप में गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं, अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ। इस प्रकार ‘उपमन्यु के स्तवन करने पर दोनों अश्विनी कुमार वहाँ आये और उससे बोले-‘उपमन्यु ! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खाने के लिये पूआ है, इसे खा लों’। उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु बोला-‘भगवन! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं गुरूजी को निवेदन किये बिना इस पूए को अपने उपयोग में नहीं ला सकता’। तब दोनों अश्विनी कुमार बोले-‘वत्स ! पहले तुम्हारे उपाध्याय ने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हम ने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरूजी को निवेदन किये बिना ही काम में ले लिया था। तुम्हारे उपाध्याय ने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करों’। उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु ने उत्तर दिया- ‘इसके लिये तो आप दोनों अश्विनी कुमारों की मैं बड़ी अनुनय विनय करता हूँ। गुरू जी के निवेदन किये बिना मैं इस पूए को नहीं खा सकता’। तब अश्विनी कुमार उससे बोले, ‘तुम्हारी इस गुरूभक्ति से हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्याय के दाँत काले लोहे के समान है। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायँगे। तुम्हारी आँखे भी ठीक हो जायँगी और तुम कल्याण के भागी भी होओगे’। अश्विनी कुमारों के ऐसा कहने पर उपमन्यु को आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्याय के समीप आकर उन्हें प्रणाम किया। तथा सब बातें गुरूजी से कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुएं। और उससे बोले-‘जैसा अश्विनीकुमारों ने कहा हैं, उसी प्रकार तुम कल्याण के भागी होओगे। ‘तुम्हारी बुद्धि में सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।’ इस प्रकार यह उपमन्यु की परीक्षा बतायी गयी। उन्हीं आयोदधौम्य के तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्याय ने आज्ञा दी, ‘वत्स वेद ! तुम कुछ काल तक यहाँ मेरे घर में निवास करो। सदा शुश्रूषा में लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा’। वेद ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरू के घर में रहने लगे। उन्होंने दीर्घकतक गुरू की सेवा की। गुरू जी उन्हें बैल की तरह सदा भारी बोझ ढोने में लगाये रखते थे और वे सरदी-गरम तथा भूख प्यास का कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओं में गुरू के अनुकूल ही रहते थे। इस प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरू जी उन पर पूर्णतः संतुष्ट हुए। गुरू के संतोष से वेद ने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली इस प्रकार यह वेद की परीक्षा का वृत्तान्त कहा गया। तदनन्तर उपाध्याय की आज्ञा होने पर वेद समावर्तन संस्कार के पश्चात स्नातक होकर गुरूगृह से लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्था श्रम में प्रवेश किया। अपने घर में निवास करते समय आचार्य वेद के पास तीन शिष्य रहते है, किन्तु वे ‘काम करो अथवा गुरू सेवा में लगे रहो’ इत्यादि रूप से किसी प्रकार नका आदेश अपने शिष्यों को नहीं देते थे; क्योंकि गुरू के घर में रहने पर छात्रों को जो इसलिये उनके मन में अपने शिष्यों को लकेशदायक कार्य में लगाने की कभी इच्छा नहीं होती थी। एक समय की बात है-ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेद के पास आकर ‘जनमेजय और पौष्य’ नाम वाले दो क्षत्रियों ने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेद ने यज्ञमान के कार्य से बाहर जाने के लिये उद्यत हो उत्तंक नाम वाले शिष्य को अग्निहोत्र आदि के कार्य में नियुक्त किया और कहा-‘वत्स उत्तंग ! मेरे घर में मेरे बिना जिस किसी वस्तु की कमी हो जाय, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।’ उत्तंक को ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये। उत्तंग गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए सेवा परायण हो गुरू के घर में रहने लगें। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्याय के आश्रय में रहने वाली सब स्त्रियों ने मिलकर बुलाया और कहा। तुम्हारी गुरूपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो इसके लिये गुरूपत्नी बड़ी चिन्ता में पड़ी हैं।
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अश्विनी कुमारों ! आप ही देानों ‘नासत्य’ नाम से प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमल की माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होने के साथ ही सत्य का पोषण और विस्तार करने वाले हैं। आपके सहयोग के बिना देवता भी उस सनातन सत्य की प्राप्ति में समर्थ नहीं हैं। युवक माता-पिता संतानोत्पत्ति के लिये पहले मुख से अन्न रूप गर्भ धारण करते हैं। तत्पश्चात पुरूषों में वीर्य रूप में और स्त्री में रजोरूप में परिणत होकर वह अन्न जड़ शरीर बन जाता है। तत्पश्चात जन्म लेने वाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही, माता के स्तनों का दूध पीने लगता है। हे अश्विनी कुमारों! पूर्वोक्त रूप से संसार बन्धन में बँधे हुए जीवों को आप तत्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाह के लिये मेरी नेत्रेन्द्रिय को भी रोग से मुक्त करें। अश्विनी कुमारों ! मैं आपके गुणों का बखान करके आप दोनों की स्तुति नहीं कर सकता। मैं इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचानने में  भूल हो जाती हैं; इसीलिये इस दुर्गम कूप में गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं, अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ। इस प्रकार ‘उपमन्यु के स्तवन करने पर दोनों अश्विनी कुमार वहाँ आये और उससे बोले-‘उपमन्यु ! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खाने के लिये पूआ है, इसे खा लों।' उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु बोला-‘भगवन! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं गुरूजी को निवेदन किये बिना इस पूए को अपने उपयोग में नहीं ला सकता।' तब दोनों अश्विनी कुमार बोले-‘वत्स ! पहले तुम्हारे उपाध्याय ने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हम ने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरूजी को निवेदन किये बिना ही काम में ले लिया था। तुम्हारे उपाध्याय ने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करों।' उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु ने उत्तर दिया- ‘इसके लिये तो आप दोनों अश्विनी कुमारों की मैं बड़ी अनुनय- विनय करता हूँ। गुरूजी से निवेदन किये बिना मैं इस पूए को नहीं खा सकता’। तब अश्विनी कुमार उससे बोले, ‘तुम्हारी इस गुरूभक्ति से हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्याय के दाँत काले लोहे के समान है। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायँगे। तुम्हारी आँखे भी ठीक हो जायेंगी और तुम कल्याण के भागी भी होओगे।' अश्विनी कुमारों के ऐसा कहने पर उपमन्यु को आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्याय के समीप आकर उन्हें प्रणाम किया। तथा सब बातें गुरूजी से कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए। और उससे बोले-‘जैसा अश्विनीकुमारों ने कहा हैं, उसी प्रकार तुम कल्याण के भागी होओगे।' ‘तुम्हारी बुद्धि में सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।’ इस प्रकार यह उपमन्यु की परीक्षा बतायी गयी। उन्हीं आयोदधौम्य के तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्याय ने आज्ञा दी, ‘वत्स वेद ! तुम कुछ काल तक यहाँ मेरे घर में निवास करो। सदा शुश्रूषा में लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।' वेद ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरू के घर में रहने लगे। उन्होंने दीर्घकाल तक गुरू की सेवा की। गुरू जी उन्हें बैल की तरह सदा भारी बोझ ढोने में लगाये रखते थे और वे सरदी-गरमी तथा भूख- प्यास का कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओं में गुरू के अनुकूल ही रहते थे। इस प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरू जी उन पर पूर्णतः संतुष्ट हुए। गुरू के संतोष से वेद ने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली इस प्रकार यह वेद की परीक्षा का वृत्तान्त कहा गया। तदनन्तर उपाध्याय की आज्ञा होने पर वेद समावर्तन संस्कार के पश्चात स्नातक होकर गुरूगृह से लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। अपने घर में निवास करते समय आचार्य वेद के पास तीन शिष्य रहते हैं, किन्तु वे ‘काम करो अथवा गुरू सेवा में लगे रहो’ इत्यादि रूप से किसी प्रकार का आदेश अपने शिष्यों को नहीं देते थे; क्योंकि गुरू के घर में रहने पर छात्रों को जो इसलिये उनके मन में अपने शिष्यों को लोकेशदायक कार्य में लगाने की कभी इच्छा नहीं होती थी। एक समय की बात है-ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेद के पास आकर ‘जनमेजय और पौष्य’ नाम वाले दो क्षत्रियों ने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेद ने यज्ञमान के कार्य से बाहर जाने के लिये उद्यत हो उत्तंक नाम वाले शिष्य को अग्निहोत्र आदि के कार्य में नियुक्त किया और कहा-‘वत्स उत्तंग ! मेरे घर में मेरे बिना जिस किसी वस्तु की कमी हो जाये, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।’ उत्तंक को ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये। उत्तंग गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए सेवा परायण हो गुरू के घर में रहने लगे। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्याय के आश्रय में रहने वाली सब स्त्रियों ने मिलकर बुलाया और कहा। तुम्हारी गुरूपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो इसके लिये गुरूपत्नी बड़ी चिन्ता में पड़ी हैं।
  
  

१४:३३, १ जुलाई २०१५ का अवतरण

तृतीय अध्‍याय: आदिपर्व (पौष्यपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 66- 86 का हिन्दी अनुवाद

अश्विनी कुमारों ! आप ही देानों ‘नासत्य’ नाम से प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमल की माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होने के साथ ही सत्य का पोषण और विस्तार करने वाले हैं। आपके सहयोग के बिना देवता भी उस सनातन सत्य की प्राप्ति में समर्थ नहीं हैं। युवक माता-पिता संतानोत्पत्ति के लिये पहले मुख से अन्न रूप गर्भ धारण करते हैं। तत्पश्चात पुरूषों में वीर्य रूप में और स्त्री में रजोरूप में परिणत होकर वह अन्न जड़ शरीर बन जाता है। तत्पश्चात जन्म लेने वाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही, माता के स्तनों का दूध पीने लगता है। हे अश्विनी कुमारों! पूर्वोक्त रूप से संसार बन्धन में बँधे हुए जीवों को आप तत्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाह के लिये मेरी नेत्रेन्द्रिय को भी रोग से मुक्त करें। अश्विनी कुमारों ! मैं आपके गुणों का बखान करके आप दोनों की स्तुति नहीं कर सकता। मैं इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचानने में भूल हो जाती हैं; इसीलिये इस दुर्गम कूप में गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं, अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ। इस प्रकार ‘उपमन्यु के स्तवन करने पर दोनों अश्विनी कुमार वहाँ आये और उससे बोले-‘उपमन्यु ! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खाने के लिये पूआ है, इसे खा लों।' उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु बोला-‘भगवन! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं गुरूजी को निवेदन किये बिना इस पूए को अपने उपयोग में नहीं ला सकता।' तब दोनों अश्विनी कुमार बोले-‘वत्स ! पहले तुम्हारे उपाध्याय ने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हम ने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरूजी को निवेदन किये बिना ही काम में ले लिया था। तुम्हारे उपाध्याय ने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करों।' उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु ने उत्तर दिया- ‘इसके लिये तो आप दोनों अश्विनी कुमारों की मैं बड़ी अनुनय- विनय करता हूँ। गुरूजी से निवेदन किये बिना मैं इस पूए को नहीं खा सकता’। तब अश्विनी कुमार उससे बोले, ‘तुम्हारी इस गुरूभक्ति से हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्याय के दाँत काले लोहे के समान है। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायँगे। तुम्हारी आँखे भी ठीक हो जायेंगी और तुम कल्याण के भागी भी होओगे।' अश्विनी कुमारों के ऐसा कहने पर उपमन्यु को आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्याय के समीप आकर उन्हें प्रणाम किया। तथा सब बातें गुरूजी से कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए। और उससे बोले-‘जैसा अश्विनीकुमारों ने कहा हैं, उसी प्रकार तुम कल्याण के भागी होओगे।' ‘तुम्हारी बुद्धि में सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।’ इस प्रकार यह उपमन्यु की परीक्षा बतायी गयी। उन्हीं आयोदधौम्य के तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्याय ने आज्ञा दी, ‘वत्स वेद ! तुम कुछ काल तक यहाँ मेरे घर में निवास करो। सदा शुश्रूषा में लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।' वेद ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरू के घर में रहने लगे। उन्होंने दीर्घकाल तक गुरू की सेवा की। गुरू जी उन्हें बैल की तरह सदा भारी बोझ ढोने में लगाये रखते थे और वे सरदी-गरमी तथा भूख- प्यास का कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओं में गुरू के अनुकूल ही रहते थे। इस प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरू जी उन पर पूर्णतः संतुष्ट हुए। गुरू के संतोष से वेद ने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली इस प्रकार यह वेद की परीक्षा का वृत्तान्त कहा गया। तदनन्तर उपाध्याय की आज्ञा होने पर वेद समावर्तन संस्कार के पश्चात स्नातक होकर गुरूगृह से लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। अपने घर में निवास करते समय आचार्य वेद के पास तीन शिष्य रहते हैं, किन्तु वे ‘काम करो अथवा गुरू सेवा में लगे रहो’ इत्यादि रूप से किसी प्रकार का आदेश अपने शिष्यों को नहीं देते थे; क्योंकि गुरू के घर में रहने पर छात्रों को जो इसलिये उनके मन में अपने शिष्यों को लोकेशदायक कार्य में लगाने की कभी इच्छा नहीं होती थी। एक समय की बात है-ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेद के पास आकर ‘जनमेजय और पौष्य’ नाम वाले दो क्षत्रियों ने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेद ने यज्ञमान के कार्य से बाहर जाने के लिये उद्यत हो उत्तंक नाम वाले शिष्य को अग्निहोत्र आदि के कार्य में नियुक्त किया और कहा-‘वत्स उत्तंग ! मेरे घर में मेरे बिना जिस किसी वस्तु की कमी हो जाये, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।’ उत्तंक को ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये। उत्तंग गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए सेवा परायण हो गुरू के घर में रहने लगे। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्याय के आश्रय में रहने वाली सब स्त्रियों ने मिलकर बुलाया और कहा। तुम्हारी गुरूपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो इसके लिये गुरूपत्नी बड़ी चिन्ता में पड़ी हैं।



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