"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 119 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('== एक सौ उन्नीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
 
== एक सौ उन्नीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
 
== एक सौ उन्नीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत उद्योगपर्व: एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद</div>
+
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
  

११:०७, १ जुलाई २०१५ का अवतरण

एक सौ उन्नीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 24 का हिन्दी अनुवाद


एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्याय: गालव का छ: सौ घोड़ों के साथ माधवी को विश्वामित्र की सेवा में देना और उनके द्वारा उसके गर्भ से अष्टक नामक पुत्र की उत्पत्ति होने के बाद उस कन्या को ययाति के यहाँ लौटा देना

नारद जी कहते हैं- उस समय विनतानन्दन गरुड़ ने गालाव मुनि से हँसते हुए कहा- ‘ब्रह्मण ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मैं तुम्हें यहाँ कृतकृत्य देख रहा हूँ’। गरुड़ की कही हुई यह बात सुनकर गालव बोले - ‘अभी गुरुदक्षिणा का एक चौथाई भाग बाकी रह गया है, जिसे शीघ्र पूरा करना है’। तब वक्ताओं में श्रेष्ठ गरुड़ ने गालव से कहा - ‘अब तुम्हें इसके लिए प्रयत्न नहीं करना चाहिए; क्योंकि तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण नहीं होगा। ‘पूर्वकाल की बात है, कान्यकुंज में राजा गाधि की कुमारी पुत्री सत्यवती को अपनी पत्नी बनाने के लिए ऋचिक मुनि ने राजा से उसे मांगा । तब राजा ने ऋची से कहा -। ‘भगवान ! मुझे कन्या के शुल्करूप में एक हजार ऐसे घोड़े दीजिये, जो चंद्रमा के समान कांतिमान हों तथा एक ओर से उनके कान श्याम रंग के हों’ गालव ! तब ऋचिक मुनि ‘तथास्तु' कहकर वरुण के लोक में गए और वहाँ अश्वतीर्थ में वैसे घोड़े प्राप्त करके उन्होने राजा गाधि को दे दिये। ‘राजा ने पुंडरिक नामक यज्ञ करके वे सभी घोड़े ब्राह्मणों को दक्षिणा रूप में बाँट दिये। तदनंतर राजाओं ने उनसे दो-दो सौ घोड़े खरीदकर अपने पास रख लिए। ‘द्विजश्रेष्ठ ! मार्ग में एक जगह नदी को पार करना पड़ा। इन छ: सौ घोड़ों के साथ चार सौ और थे । नदी पार करने के लिए जाये जाते समय वे चार सौ घोड़े वितस्ता (झेलम) की प्रखर धारा में बह गए। ‘गालव ! इस प्रकार इस देश में इन छ: सौ घोड़ों के सिवा दूसरे घोड़े अप्राप्य हैं । अत: उन्हें कहीं भी पाना असंभव है । मेरी राय यह है कि शेष दो सौ घोड़ों के बदले यह कन्या ही विश्वामित्रजी को समर्पित कर दो । धर्मात्मन ! इन छ: सौ घोड़ों के साथ विश्वामित्रजी की सेवा में इस कन्या को ही दे दो । द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा करने से तुम्हारी सारी घबराहट दूर हो जाएगी और तुम सर्वथा कृतकृत्य हो जाओगे’। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर गालव गरुड़ के साथ वे (छ: सौ) घोड़े और वह कन्या लेकर विश्वामित्रजी के पास आए। आकर उन्होनें कहा - ‘गुरुदेव ! आप जैसा चाहते थे, वैसे ही ये छ: सौ घोड़े आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं और शेष दो सौ के बदले आप इस कन्या को ग्रहण करें। ‘राजर्षियों ने इसके गर्भ से तीन धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किए हैं । अब आप भी एक नरश्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न कीजिये, जिसकी संख्या चौथी होगी। ‘इस प्रकार आपके आठ सौ घोड़ों की संख्या पूरी हो जाये और मैं आपसे उऋण होकर सुखपूर्वक तपस्या करूँ, ऐसी कृपा कीजिये’। विश्वामित्र ने गरुड़ सहित गालव की ओर देखकर इस परम सुंदरी कन्या पर भी दृष्टिपात किया और इस प्रकार कहा -। ‘गालव ! तुमने पहले ही इसे यहीं क्यूँ नहीं दे दिया, जिससे मुझे ही वंशप्रवर्तक चार पुत्र प्राप्त हो जाते। ‘अच्छा, अब मैं एक पुत्ररूपी फल की प्राप्ति के लिए तुमसे इस कन्या को ग्रहण करता हूँ । ये घोड़े मेरे आश्रम में आकार सब और चरें’। इस प्रकार महातेजस्वी विश्वामित्र मुनीने उसके साथ रमण करते हुए यथासमय उसके गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न किया। माधवी के उस पुत्र का नाम अष्टक था। पुत्र के उत्पन्न होते ही महामुनि विश्वामित्र ने उसे धर्म, अर्थ तथा उन अश्वों से सम्पन्न कर दिया। तदनन्तर अष्टक चंद्रपुरी के समान प्रकाशित होनेवाली विश्वामित्रजी की राजधानी में गया और विश्वामित्र भी अपने शिष्य गालव को वह कन्या लौटाकर वन में चले गए। गरुड़ सहित गालव भी गुरुदक्षिणा देकर मन ही मन अत्यंत संतुष्ट हो राजकन्या माधवी से इस प्रकार बोले - ‘सुंदरी ! तुम्हारा पहला पुत्र दानपति, दूसरा शूरवीर, तीसरा सत्यधर्मपरायण और चौथा यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाला होगा । सुमध्यमे ! तुमने इन पुत्रों के द्वारा अपने पिता को तो तारा ही है, उन चार राजाओं का भी उद्धार कर दिया है । अत: अब हमारे साथ आओ। ऐसा कहकर सर्पभोजी गरुड़ से आज्ञा ले उस राजकन्या को पुन: उसके पिता ययाति के यहाँ लौटाकर गालव वन में ही चले गए।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख