"महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-18" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">[[अर्जुन]] और [[द्रौपदी]] के द्वारा [[कृष्ण|भगवान् श्री कृष्ण]] की स्तुति, द्रौपदी का भगवान् श्रीकृष्ण से अपने प्रति किये गये अपमान और दुःख का वर्णन और भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं [[धृष्टद्युम्न]] का उसे आश्वासन देना</div>
  
'''वैशम्पायनजी कहते हैं''' -- [[जनमेजय]] ! जब भोज, वृष्णि और अन्धक वंश के वीरों ने सुना कि पाण्डव अत्यन्त दुःख से संतप्त हो राजधानी से निकलकर चले गये, तब वे उनसे मिलने के लिये महान वन में गये। [[पांचाल |पांचाल राजकुमार]] धृष्टद्युम्न, चेदिराज धृष्टकेतु तथा महापराक्रमी लोकविख्यात केकय राजकुमार सभी भाई क्रोध और अमर्ष में भरकर [[धृतराष्ट्र]] पुत्रों की निदा करते हुए कुन्तीकुमारों से मिलने के लिये वन में गये और आपस में इस प्रकार कहने लगे, ‘हमें क्या करना चाहिये‘। भगवान् श्री कृष्ण को आगे करके वे सभी क्षत्रियशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण विषादग्रस्त हो कुरुप्रवर [[युधिष्ठिर]] को नमस्कार करके इस प्रकार बोले।
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'''वैशम्पायनजी कहते हैं''' -- [[जनमेजय]] ! जब भोज, वृष्णि और अन्धक वंश के वीरों ने सुना कि पाण्डव अत्यन्त दुःख से संतप्त हो राजधानी से निकलकर चले गये, तब वे उनसे मिलने के लिये महान वन में गये। [[पांचाल |पांचाल राजकुमार]] धृष्टद्युम्न, चेदिराज धृष्टकेतु तथा महापराक्रमी लोकविख्यात केकय राजकुमार सभी भाई क्रोध और अमर्ष में भरकर [[धृतराष्ट्र]] पुत्रों की निदा करते हुए कुन्तीकुमारों से मिलने के लिये वन में गये और आपस में इस प्रकार कहने लगे, ‘हमें क्या करना चाहिये‘। भगवान् श्री कृष्ण को आगे करके वे सभी क्षत्रियशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे। उस समय भगवान श्रीकृष्ण विषादग्रस्त हो कुरुप्रवर [[युधिष्ठिर]] को नमस्कार करके इस प्रकार बोले।
  
 
'''श्री कृष्ण ने कहा'''-- राजाओं ! जान पड़ता है, यह पृथ्वी, [[दुर्योधन]], [[कर्ण]], दुरात्मा [[शकुनि]] और चौथे [[दुःशासन]], इन सबके रक्त का पान करेगी। युद्ध में इनको और इनके सब सेवकों को अन्य राजाओं सहित परास्त करके हम सब लोग धर्मराज युधिष्ठिर को पुनः चक्रवर्ती नरेश के पद पर अभिषिक्त करें। जो दूसरों के साथ  छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा है, उसे मार डालना चाहिये, यह सनातन धर्म है।
 
'''श्री कृष्ण ने कहा'''-- राजाओं ! जान पड़ता है, यह पृथ्वी, [[दुर्योधन]], [[कर्ण]], दुरात्मा [[शकुनि]] और चौथे [[दुःशासन]], इन सबके रक्त का पान करेगी। युद्ध में इनको और इनके सब सेवकों को अन्य राजाओं सहित परास्त करके हम सब लोग धर्मराज युधिष्ठिर को पुनः चक्रवर्ती नरेश के पद पर अभिषिक्त करें। जो दूसरों के साथ  छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा है, उसे मार डालना चाहिये, यह सनातन धर्म है।

१२:५२, २८ जून २०१५ का अवतरण

द्वादश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व द्वादश अध्याय श्लोक 1- 32 का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन और द्रौपदी के द्वारा भगवान् श्री कृष्ण की स्तुति, द्रौपदी का भगवान् श्रीकृष्ण से अपने प्रति किये गये अपमान और दुःख का वर्णन और भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं धृष्टद्युम्न का उसे आश्वासन देना

वैशम्पायनजी कहते हैं -- जनमेजय ! जब भोज, वृष्णि और अन्धक वंश के वीरों ने सुना कि पाण्डव अत्यन्त दुःख से संतप्त हो राजधानी से निकलकर चले गये, तब वे उनसे मिलने के लिये महान वन में गये। पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न, चेदिराज धृष्टकेतु तथा महापराक्रमी लोकविख्यात केकय राजकुमार सभी भाई क्रोध और अमर्ष में भरकर धृतराष्ट्र पुत्रों की निदा करते हुए कुन्तीकुमारों से मिलने के लिये वन में गये और आपस में इस प्रकार कहने लगे, ‘हमें क्या करना चाहिये‘। भगवान् श्री कृष्ण को आगे करके वे सभी क्षत्रियशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर को चारों ओर से घेरकर बैठे। उस समय भगवान श्रीकृष्ण विषादग्रस्त हो कुरुप्रवर युधिष्ठिर को नमस्कार करके इस प्रकार बोले।

श्री कृष्ण ने कहा-- राजाओं ! जान पड़ता है, यह पृथ्वी, दुर्योधन, कर्ण, दुरात्मा शकुनि और चौथे दुःशासन, इन सबके रक्त का पान करेगी। युद्ध में इनको और इनके सब सेवकों को अन्य राजाओं सहित परास्त करके हम सब लोग धर्मराज युधिष्ठिर को पुनः चक्रवर्ती नरेश के पद पर अभिषिक्त करें। जो दूसरों के साथ छल-कपट अथवा धोखा करके सुख भोग रहा है, उसे मार डालना चाहिये, यह सनातन धर्म है।

वैशम्पायनजी कहते हैं -- जनमेजय ! कुन्ती पुत्रों के अपमान से भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे कुपित हो उठे, मानो वे समस्त प्रजा को जलाकर भस़्म कर देंगे । उन्हें इस प्रकार क्रोध करते देख अर्जुन ने उन्हें शान्त किया और उन सत्य और उन सत्यकीर्ति महात्मा द्वारा पूर्व शरीर में किये हुए कर्मों का कीर्तन आरम्भ किया। भगवान श्रीकृष्ण अंर्तयामी, अप्रमेय, अमिततेजस्वी, प्रजापतियों के भी पति, सम्पूर्ण लोकों के रक्षक तथा परम बुद्धिमानी श्री विष्णु ही हैं (अर्जुन ने उनकी इस प्रकार स्तुति की )।

अर्जुन बोले -- श्रीकृष्ण ! पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर आपने यत्रसायंगृ[१]ह मुनि के रूप में दस हजार वर्षों तक विचरण किया है अर्थात् नारायण ऋषि के रूप में निवास किया है। सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! पूर्वकाल में कभी इस धरा-धाम में अवतीर्ण हो जाने पर आपने ग्यारह हजार वर्षों तक केवल जल पीकर रहते हुए पुष्करतीर्थ में निवास किया है। मधुसूदन ! आज विशालपुरी के बदरिकाश्रम में दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये केवल वायु का आहार करते हुए सौ वर्षों तक एक पैर से खड़े रहे हैं। कृष्ण ! आप सरस्वती नदी के तट पर उत्तरीय वस्त्र का त्याग करके द्वादश वार्षिक यज्ञ करते समय तक का त्याग करते समय शरीर से अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। आपके सारे शरीर में फैली हुई नस- नाङियाँ स्पष्ट दिखायी देती थीं। गोविन्द ! आप पुण्यात्मा पुरुषों के निवास योग्य प्रभासतीर्थ में जाकर लोगों को तप में प्रवृत्‍त करने के लिये शौचद-संतोषादि नियमों में स्थित हो महातेजस्वी स्परूप से एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक एक ही पैर से खड़े रहे। ये सब बातें मुझसे श्री व्यासजी ने बतायी हैं। केशव ! आप क्षेत्रज्ञ( सबके आत्मा ),सम्पूर्ण भूतों के आदि और अन्त, तपस्या के अधिष्ठान, यज्ञ और सनातन पुरुष हैं।

आप भूमि पुत्र नरकासुर को मारकर अदिति के दोनों मणिमय कुण्डलों को ले आये थे एवं आपने ही सृष्टि के आदि में उत्पन्न होने वाले यज्ञ के उपयुक्त घोड़े की रचना की थी। सम्पूर्ण लोकों पर विजय पाने वाले लोकेश्वर प्रभु ने वह कर्म करके सामना करने के लिये आये हुए समस्त दैत्यों और दानवों का युद्ध स्थल में वध किया। महाबाहु केशव ! तदनन्तर शची पति को सर्वेश्वर पद प्रदान करके आप इस समय मनुष्यों में प्रकट हुए हैं। परंतप ! पुरुषोत्तम ! आप ही पहले नारायण होकर फिर हरिरूप में प्रकट हुए, ब्रह्म, सोम, धर्म, धाता, यम, अनल, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ, चराचरगुरु तथा सृष्टिकर्ता एवं अजन्मा आप ही हैं। मधुसूदन श्रीकृष्ण ! आपने चैत्ररथ वन में अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया है। आप सबके उत्तम आश्रय,देवशिरोमणि और महातेजस्वी हैं। जनार्दन ! उस समय आपने प्रत्येक यज्ञ के रूप में पृथक्-पृथक् एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दक्षिणा के रूप में दी।

यदुनन्दन ! आप अदिति के पुत्र हो, इन्द्र के छोटे भाई होकर सर्वव्यापी विष्णु के नाम से विख्यात हैं। परंतप ! श्रीकृष्ण ! आपने वामन अवतार के समय छोटे-से बालक होकर भी अपने तेज से तीन डगों द्वारा द्युलोक, अन्तरिक्ष और भूलोक--तीनों को नाप लिया। भूतात्मन् ! आप ने सूर्य के रथ पर स्थित हो द्युलोक और आकाश में व्याप्त होकर अपने तेज से भगवान् भास्कर को भी अत्यन्त प्रकाशित किया है। विभो ! आपने सहस्त्रों अवतार धारण किये हैं और उन अवतारों में सैकडों असुरों का, जो अधर्म में रुचि रखने वाले थे, वध किया हैं। आपने मुर दैत्य के लोहमय पाश काट दिये, निसुन्द और नरकासुर को मार डाला और पुनः प्राग्ज्योतिष पुर का मार्ग सकुशल यात्रा करने योग्य बना दिया। भगवन् ! आपने जारूथी नगरी में आहुति, क्राथ साथियों सहित शिशुपाल, जरासंध, शैब्य और शतधन्वा को परास्त किया। इसी प्रकार मेघ के समान घर्घर शब्द करने वाले सूर्य-तुल्य तेजस्वी रथ के द्वारा कुण्डिनपुर में जाकर आपने रुक्‍मी को युद्ध में जीता और भोजवंशी कन्या रुक्मिणी को अपनी पटरानी के रूप रूपा में प्राप्त किया। प्रभो ! अपने क्रोध से इन्द्रद्युम्न को मारा और यवन जातीय कसेरुमान् एवं शौभपति शाल्व को भी पहुँचा दिया। साथ ही शाल्व के सौभ विमान को भी छिन्न-भिन्न करके धरती पर दिया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यत्रसायंगृह मुनि वे होते हैं,जो जहाँ सायंकाल हो जाता है, वहीं घर की तरह निवास करते हैं।

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